सामान्य से ऑफिस और घर के बीच दौड़ते भागते, हम मुश्किल से ही ऐसे लोगों से मिल पाते हैं जो किसी माउन्ट एवरेस्ट पर चढ़ने की बात करें। हां, कभी प्रमोशन न मिलने पर, घर में किसी परिवार के सदस्य से छोटी सी अनबन होने पर या मेट्रो के लेट आने पर अपनी किस्मत और संघर्षों को कोसने वाले बहुत मिल जाएंगे। लेकिन एक नाम ऐसा है जिसके बारे में सुनकर आप महसूस करेंगे कि इंसान की रियल शक्ति कितनी अधिक हो सकती है। हम बात कर रहे हैं दुनिया के सबसे ऊंचे पर्वत माउंट एवरेस्ट पर देश का परचम लहराने वाली पहली दिव्यांग महिला अरुणिमा सिन्हा की।
मार्मिक हादसे में खोए थे पैर
उत्तर प्रदेश के छोटे से जिले अम्बेडकर नगर में साल 1988 में जन्मी अरुणिमा सिन्हा साल 2011 तक एक स्वस्थ युवा खिलाड़ी थी। वो बचपन से खेलकूद में आगे थी और वॉलीबॉल में नेशनल लेवल की प्लेयर भी बनी। करियर बनाने के लिए लॉ में ग्रेजुएट करने के बाद अरुणिमा ने अच्छी जॉब के लिए जगह-जगह फॉर्म भरना शुरू किया। कई असफल कोशिशों के बाद जब CISF में हेड कॉन्सटेबल के पोस्ट के लिए उन्हें कॉल लेटर मिला तो उसमें कुछ गलतियां देखकर अरुणिमा ने 11 अप्रेल,2011 के दिन खुद दिल्ली जाकर बदलवाने के लिए ट्रेन पकड़ी।
लेकिन जैसा कि खुद अरुणिमा ने एबिलिटी मैगजीन को दिए अपने इंटरव्यू में कहा है कि हमारी कहानी पहले से ही लिख दी गई है। हम बस अपनी भूमिका निभाते हैं और भाग्य यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी स्क्रिप्ट में बदलाव न कर सके। अरुणिमा ने बताया कि कैसे एक लोकल चोर के ग्रुप ने उनसे उनकी गोल्ड की चेन छीनने की कोशिश की और भरी हुई ट्रेन में कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया। पहले तो स्पोर्ट्स में माहिर रही अरुणिमा चोरों के साथ भिड़ी गई, लेकिन एक समय ऐसा आया कि इन चोरों ने मिलकर अरुणिमा को चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया।
इस हादसे में जैसे ही अरुणिमा ट्रेक पर गिरी, दूसरी तरफ से आती हुई एक ट्रेन उनके बाएं पैर पर चढ़कर चली गई।
रातभर पटरी पर पड़ी रही थी अरुणिमा
हादसे के बाद उस रास्ते से रात में लगभग 49 ट्रेन और निकली, लेकिन अरुणिमा को किसी ने नहीं देखा। सुबह पटरी के पास आए गांववालों ने उन्हें देखकर अस्पताल पहुंचाया जहां उनसे इजाजत लेकर उनके चोटिल पैर को उनके शरीर से अलग कर दिया गया।
न्यूज बन गई थी अरुणिमा
इस मार्मिक हादसे और इसके बाद पैर कटने की कहानी, अरुणिमा की दर्द भरी दास्तां हर न्यूज चैनल पर दिखाई जा रही थी। अब समय था कि अपने-अपने गिरेबान को इस हादसे में हुई गलतियों से बचाने का और इस सबमें एक बार फिर कमजोर कड़ी हर किसी को अरुणिंमा ही मिली।
और लोगों ने अरुणिमा पर संघर्षों से बचने के लिए सुसाइड की कोशिश करने, बिना टिकट ट्रेन पर चलने जैसे इल्जाम भी लगाएं।
खुद को प्रूव करने की ऐसे मिली अरुणिमा को प्रेरणा
मात्र 3 साल की उम्र में ही अपने पिता को खो चुकी अरुणिमा के सामने चुनौतियां को हमेशा आई थी और हर समय उनका परिवार उनके साथ ही खड़ा था। अपने ऊपर लगे सुसाइड की कोशिश के इल्जामों के बीच एक दिन अरुणिमा ने अस्पताल के बेड पर ही एवरेस्ट पर लिखा एक लेख पढ़ा और यहीं से उन्हें लगा कि उन्हें भी खुद को प्रूव करने के लिए यहां जाना होगा। अपने लिए लोगों की आंखों में दया या सवाल, दोनों ही अरुणिमा को चुभते थे।
अपने इंटरव्यू में अरुणिमा ने कहा है, जब भी मैं अपना खोया हुआ पैर देखती तो सोचती, इसे कभी अपनी कमजोरी नहीं बनने दूंगी। मैंने फैसला किया, लोगों को शब्दों से नहीं अपने काम से जवाब दूंगी।
खूब किया खुद को मोटिवेट
अरुणिमा अस्पताल से निकलने के बाद सीधे जमशेदपुर जाकर बछेन्द्री पाल से मिली। उन्होंने बिना सुगर कोट किए अरुणिमा को पर्वतारोहण की चुनौतियों के बारे में तो बताया। लेकिन इसके साथ उन्होंने ये भी कहा कि अगर अरुणिमा इन स्थितियों में एवरेस्ट पर जाने के बारे में सोच रही हैं तो वो माउन्ट एवरेस्ट चढ़ने की पहली जंग अपने मन में जीत चुकी है। स्वामी विवेकानंद की बातों में विश्वास करने वाली अरुणिमा खुद को प्रेरित रखने के लिए विवेकानंद का ये कोट हमेशा याद रखती हैं, “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए”। साथ ही अरुणिमा को युवराज सिंह और उनके जैसे फेमस लोगों से भी प्रेरणा मिली जिन्होंने कैंसर जैसी बिमारी पर विजय पाया था।
सब कुछ खोकर, मेहनत और लगन से सब कुछ पाना
अपने प्रोस्टेट पैर के साथ अरुणिमा ने पहाड़ों पर रहना शुरू किया और इस दिशा में प्रशिक्षण लेना भी शुरू किया। इंडियाटाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार पहले उन्हें उत्तरकाशी के टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन में शुरुआती ट्रेनिंग के लिए भेजा गया। यहां कोर्स खत्म करने के बाद उन्होंने उत्तरकाशी के ही ‘नेहरू माउंटेनरिंग इंस्टीट्यूट’ में प्रशिक्षण लिया।
इसके बाद भी अरुणिमा दो साल तक खुद को तैयार करने में लगाएं और इस बीच वो एवरेस्ट के आसपास के पहाड़ों पर चढ़ाई करती रही।
52 दिनों में पहुंची एवरेस्ट की चोटी पर
एवरेस्ट के जटिल रास्तों पर चढ़ाई अच्छे-अच्छों के पसीने छुड़ा देती है, ऐसे में अरुणिमा ने अपने कृत्रिम पैर के साथ बिना रस्सी की मदद से एवरेस्ट पर न सिर्फ चढ़ाई की बल्कि उसकी चोटी पर देश का तिरंगा भी लहराया। 52 दिनों की यात्रा में उनके गाइड ने उन्हें कई बार वापस जाने की सलाह दी थी लेकिन अरुणिमा का मानना है कि हमारा शरीर वैसे ही बिहेव करता है जैसा हम सोचते हैं। उन्होंने कहा कि मैं अपनी चढ़ाई के आखिरी चरणों में खुद को ये कह दिया था कि मैं यहां से न तो वापस जाउंगी और न ही मेरे पास यहां मरने का कोई ऑप्शन है।
21 मई 2013 के दिन आखिरकार अरुणिमा का सपना तब पूरा हो गया जब उन्होंने एवरेस्ट की चोटी पर देश का तिरंगा लहराया और साथ ही वहां स्वामी विवेकानंद जी की तस्वीर भी लगाई।
मिल चुका है पद्मश्री सम्मान
एक पैर में रॉड और एक तरफ कृत्रिम पैरों के सहारे माउंट एवरेस्ट पर पहुंचने वाली अरुणिमा की कहानी लाखों हारे हुए लोगों को फिर से कोशिश करने और अपने सपनों को पूरा करने की प्रेरणा देती है। यही वजह है कि सरकार ने उनकी उपलब्धि को सम्मानमित करते हुए उन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा है। इसके साथ ही उत्तर प्रेदेश सरकार ने भी उन्हें 25 लाख की राशि भी दी थी।
दिव्यांग बच्चों के लिए चलाती हैं खेल अकादमी
अब अरुणिमा शारीरिक रूप से असक्षम बच्चों के लिए एक खेल अकादमी चलाती हैं और लोगों को अपने सपने पूरे करने के लिए मोटिवेट भी करती हैं।
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