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अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़कियों और महिला सेक्सुएलिटी पर बनी टॉप 10 बॉलीवुड फिल्म

Richa Kulshrestha  |  Jun 7, 2018
अपनी शर्तों पर जीने वाली लड़कियों और महिला सेक्सुएलिटी पर बनी टॉप 10 बॉलीवुड फिल्म

हमारे समाज में आज के आधुनिक जमाने में भी महिला सेक्सुएलिटी पर बहुत कम बात की जाती है और बॉलीवुड भी इसका अपवाद नहीं है। महिलाओं की शारीरिक जरूरतों को बहुत कम फिल्मों में दर्शाया जाता है, और जिन फिल्मों में आज की इस वास्तविकता को दिखाया जाता है, ऐसी फिल्में हमारे पुरुष समाज को पसंद नहीं आतीं। अभी पिछले ही दिनों रिलीज हुई फिल्म वीरे दी वेडिंग इसका ही एक उदाहरण है। महिलाओं की सेक्स जरूरतें भी पुरुषों की ही तरह हैं, भले ही वो हमारे घरों में इसे स्वीकार न करे। महिला सेक्सुएलिटी को आम फिल्मों में जिस अंदाज में परोसा जाता है, उसमें वो सिर्फ एक सजावटी सामान बनकर रह जाती है। हालांकि कुछ फिल्मों ने इस परंपरा को तोड़ा भी है। हम यहां ऐसी ही महिला प्रधान फिल्मों के बारे में बता रहे हैं, जिन्होंने लीक से हटकर महिलाओं की जरूरतों के साथ- साथ आज की वास्तविकता को भी पर्दे पर चित्रित किया है। हालांकि इनमें सभी फिल्मों ने महिलाओं के साथ न्याय नहीं किया है, हां यह दिखाने में सभी फिल्में कामयाब रही हैं कि पुरुषों की तरह महिलाओं की भी शारीरिक जरूरत होती है। तो जानें कौन सी हैं ऐसी टॉप 10 फिल्म –

1. वीरे दी वेडिंग (2018)

यह फिल्म चार आजाद विचारों वाली लड़कियों की कहानी है, जो खुद को ‘फेमिनिस्ट’ नहीं मानती हैं। हालांकि फिल्म की चारों प्रमुख किरदार छोटे कपड़े पहनती हैं, शराब-सिगरेट पीती हैं और रात- रात भर पार्टी करती हैं। इनमें से एक लड़की को एक मर्द ‘अवेलेबल’ मानता है, शराब के नशे में दोनों शारीरिक रिश्ता भी बनाते हैं, लेकिन इसके बावजूद वो लड़की उस मर्द को ख़ुद से कमतर ही समझती है। बॉलीवुड में शायद पहली बार मर्दों के याराना से हटकर औरतों को हीरो बनाकर, उनकी दोस्ती को केंद्र में रखकर उनकी ख्वाहिशों के बारे में कुछ कहने की कोशिश की गई है। फिल्म में ‘अपना हाथ जगन्नाथ’ कहते हुए खुलकर हस्तमैथुन की बात हुई है । सेक्स की ज़रूरत के बारे में बिंदास बातें और हस्तमैथुन पर क्लीयर सीन, जिसके लिए सोशल मीडिया पर ट्रोलिंग भी हुई है।

2. लिपस्टिक अंडर माय बुर्का (2017)

विवादित फिल्म ‘लिपस्टिक अंडर माय बुर्क़ा’ हमारे समाज में महिलाओं की आजादी को जकड़ने वाली बेड़ियों पर सीधा प्रहार करती है। सेंसर बोर्ड ने पहली बार तो इस फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने से ही इनकार कर दिया था। फिल्म में दिखाया है कि हमारे समाज में औरतों के दुखों की कहानी एक जैसी ही है, फिर चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाली हो, चाहे कुवांरी हो, शादीशुदा हो या फिर उम्रदराज। कोई जींस और अपनी पसंद के कपड़े पहनने की लड़ाई लड़ रही है, कोई उसे सेक्स की मशीन समझने वाले पति से अपने पैरों पर खड़ी होने की लड़ाई लड़ रही है, कोई अपनी मर्जी से सेक्स लाइफ जीने आजादी चाहती है, तो कोई उम्रदराज होने पर भी अपने सपनों के राजकुमार को तलाश रही है। दरअसल यह फिल्म महिलाओं की ऐसी यौन कल्पना को दर्शाती है, जिसे महिलाएं स्वीकारने और महसूस करने से भी कतराती हैं।

3. अनारकली ऑफ आरा (2017)

अनारकली ऑफ आरा को ‘पिंक’ का ग्रामीण रूप कहा जा सकता है, जो अपनी शर्तों पर जीती है। अनारकली पिंक की अकेली, शहरी लड़कियों की ही तरह कमाऊ लड़की है, भले वह ‘ढीले चरित्र’ वाली लड़की है। नए स्त्री विमर्श के सिनेमा में रुचि रखने वालों को यह फिल्म एक बुलंद आवाज की तरह महसूस होगी। लहंगे में लिपटी, कमर मटकाती और फूहड़ गाना गाने वाली अनारकली के लिए जमकर सीटियां बजती हैं। वह खुद कहती है कि वह सती-सावित्री नहीं है। वह अपने शादीशुदा बिजनेस पार्टनर के साथ रोमांस करती है और पैसे के लिए ‘साइड-बिजनेस’ भी करती है, लेकिन वह एक ऐसी महिला है जो अपने काम को अपनी शर्तों पर करती है।

 

4. पिंक (2016)

महिला अधिकारों पर बनी फिल्म पिंक में भी अपनी आजाद सोच के लिए महिलाओं का पुरुषों से संघर्ष दर्शाया गया है। निर्देशक अनिरुद्ध रॉय चौधरी की पिंक यह मुद्दा उठाती है कि समाज में जब स्त्री- पुरुष की भूमिकाएं तेजी से बदल रही हैं तो मानसिकता वही पुरानी क्यों रह गई है? पिंक में इस तरह के कई सवालों को उठाया गया है, जैसे क्या लड़कियों का लड़कों के साथ दोस्ती, हंसना- बोलना उन्हें यह अधिकार दे देता है कि  वह उनके साथ कुछ भी कर सकें। क्या इससे उन्हें लड़कियों के चरित्र का आकलन करने की छूट मिल जाती है? फिल्म में वकील बने अमिताभ बच्चन पब्लिक को बताते हैं कि किस तरह हमने लड़कियों पर पाबंदियां लगा रखी हैं। अगर वे पुरुषों की सोच के दायरे से निकलती हैं तो उन्हें बदचलन कहा और समझा जाता है। अगर लड़कियां जींस-टीशर्ट पहनना, हंस कर और छूकर बातें करना, शराब पीना, पार्टियों में जाना…जैसे काम करती हैं तो लड़के मान लेते हैं कि वो उनके साथ सो भी सकती हैं। पिंक बताती है कि लड़कियों के स्कर्ट की लंबाई – रूप-आकार-नाप का पैमाना लड़की के चरित्र को बयां नहीं करता है।

 

5. पार्च्ड (2016)

फिल्म ‘पार्च्ड’ देश के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं की शारीरिक जरूरतों के रूप में महिला सेक्सुएलिटी दर्शाती है। गांवों का कितना भी आधुनिकीकरण हो गया हो, लेकिन महिलाओं के प्रति पुरुषों के दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं दिखता है। उनके लिए स्त्री अभी भी सेक्स और बच्चा पैदा करने की मशीन है। वे स्त्रियों को पीटते हैं, मर्दानगी दिखाते हैं, क्रूरता भरा व्यवहार करते हैं और तमाम अधिकारों से वंचित रखते हैं। पार्च्ड में तीन महिला किरदारों तनिष्ठा चटर्जी, राधिका आप्टे और सुरवीन चावला के माध्यम से बाल विवाह, वेश्यावृत्ति, विधवा, घरेलू हिंसा, वैवाहिक बलात्कार जैसी बुराइयों को दिखाया गया है। फिल्म दर्शाती है कि पुरुष अपनी दैहिक जरूरतों को ‘मर्दानगी’ का नाम देते हैं, लेकिन महिलाओं की दैहिक जरूरत को कोई नहीं समझता। ज्यादातर महिलाएं अपनी इच्छाओं को दबाकर रखती हैं। पार्च्ड इशारा करती है कि महिलाओं को अपनी स्थिति में सुधार करना है तो उन्हें खुद आगे बढ़ना होगा।

 

6. मसान (2015)

मसान भी महिला सेक्सुएलिटी के रूप में छोटे शहरों में अपनी शारीरिक इच्छाओं को पूरा करने की जद्दोजहद दिखाती है। फिल्म में शहरों की धीमी और जकड़ी जिंदगी से बाहर निकलने का संघर्ष और आजाद ख्याल जीवन जीने की चाहत दर्शाई गई है जिस पर समाज का विकृत साया है। फिल्म में एक जवान लड़की (रिचा चड्ढा) है जो अपने जीवन को खुलकर जीना चाहती है और उस खास लम्हे को जीने की तमन्ना रखती है जो हर किसी युवा का ख्वाब होता है।  जब वह अपने उस खास लम्हे को सच करने जा रही होती है, तभी हालात और फिर ब्लैकमेलिंग का शिकार हो जाती है. लेकिन इसके बावजूद उसे इसका कोई पछतावा नहीं है।

 

7. द डर्टी पिक्चर (2011)

विमेन सेक्सुएलिटी पर बनी द डर्टी पिक्चर काफी बोल्ड फिल्म है, जिसमें सफलता पाने के महिलाओं के हथकंडों को खुलकर दिखाया गया है। इसके लिए फिल्म की नायिका शरीर तक का इस्तेमाल करती है। वह इतनी बोल्ड है कि जो प्रेमी उससे शादी करने वाला है उससे उसके बाप की उम्र पूछती है। पुरुष बोल्ड हो तो इसे उसका गुण माना जाता है, लेकिन यह बात महिला पर लागू नहीं होती। पुरुष प्रधान समाज महिला की बोल्डनेस से भयभीत हो जाता है। जो सुपरस्टार रात उसके साथ गुजारता है, दिन के उजाले में उसके पास आने से डरता है। सुपरस्टार बनी फिल्म की नायिका को समझ में आ जाता है कि सभी पुरुष उसकी कमर पर हाथ रखना चाहते हैं। सिर पर कोई हाथ नहीं रखना चाहता। बिस्तर पर उसे सब ले जाना चाहते हैं घर कोई नहीं ले जाना चाहता। फिल्म की हीरोइन के जीवन में तीन पुरुष आते हैं। एक सिर्फ उसका शोषण करना चाहता है। दूसरा उसे अपनाने के लिए तैयार है, लेकिन उसके बिंदास स्वभाव की वजह से उसे अपने हिसाब से बदलना चाहता है। तीसरा उससे नफरत करता है। उसे फिल्मों में आई गंदगी बताता है, लेकिन अंत में उसकी ओर आकर्षित भी होता है।

 

8. देव डी (2009)

अनुराग कश्यप की यह फिल्म कई परंपराओं को तोड़ती हुई नजर आती है। फिल्म में आज की पीढ़ी की खुली मनोवृत्ति को दिखाया गया है, जहां सेक्स पर खुलकर बातें होती हैं, मोबाइल पर नग्न फोटो भेजा जाता है और कहीं भी कभी भी सेक्स कर लिया जाता है। फिल्म में आज की पीढ़ी के आधुनिक और पुरानी विचारधारा के बीच फंसे होने का सही चित्रण किया गया है। फिल्म में स्त्री की ओर से सेक्स की पहल को शायद पहली बार फिल्माया गया है। फिल्म में कल्कि का किरदार चंद्रमुखी से प्रेरित है। सत्रह वर्ष की उम्र में होने वाले शा‍रीरिक बदलाव उसे लड़कों की ओर आकर्षित करते हैं और वह एक एमएसएस स्कैण्डल में फंस जाती है। वह खुद को वेश्या नहीं बल्कि कमर्शियल सेक्स वर्कर मानती है।

 

9. अस्तित्व (2000)

एक महिला की शारीरिक जरूरतों और एक पत्नी से अलग अपनी पहचान तलाशने की कहानी है अस्तित्व। पति के लिए समर्पित पत्नी के विद्रोह की गाथा भी कहती है यह फिल्म। फिल्म में मातृत्व और पत्नीत्व के बीच अपनी एक अलग पहचान के लिए होने वाला संघर्ष है, द्वंद्व है। फिल्म की प्रमुख किरदार अदिति जो अपने पति के साथ हंसी- खुशी 20 साल गुजार चुकी है, अपने चरित्र पर सवाल उठने की वजह से अचानक पति से संबध तोड़ देती है और घर से निकलकर अपनी एक नई पहचान की तलाश करती है। अस्तित्व ऐसी पहली हिंदी फिल्म थी, जिसमें किसी महिला पात्र को अपनी शारीरिक इच्छाओं के बारे में बात करते और अपनी संतान को पति के अलावा किसी और व्यक्ति का होना स्वीकार करते हुए दिखाया गया है।

 

10. फायर (1996)

महिला समलैंगिकता पर संभवतया यह भारतीय सिनेमा की पहली फिल्म थी। जानीमानी लेखिका इस्मत चुगताई की कहानी लिहाफ पर आधारित इस फिल्म को इसी वजह से काफी आलोचना का सामना करना पड़ा था। फिल्म की दोनों नायिकाओं शबाना आजमी और नंदिता दास अपनी जिंदगी में पुरुषों की उपेक्षा के चलने एक दूसरे के प्रति आकर्षित होती हैं और शारीरिक संबंध बनाती हैं। फिल्म में महिला सेक्सुएलिटी और सेक्स की जरूरत को खूबसूरती से फिल्माया गया है। उस जमाने में होमोसेक्सुएलिटी को देखने का नजरिया आज की तरह नहीं था, इसलिए इसे उस दौर की काफी बोल्ड फिल्मों में गिना जाता है।  फिल्म में फिल्म की जरूरत के अनुसार फिल्म में मौजूद स्मूचिंग और इंटिमेट सींस पर काफी आपत्ति की गई थी। इसके बाद दीपा मेहता की फिल्म अर्थ और वॉटर भी महिला सेक्सुएलिटी पर ही आधारित जोरदार फिल्में थीं।

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