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#ToMaaWithLove: जब ज़िंदगी ने ठोकर मारी तब मां ने हाथ थामकर चलने के काबिल बनाया

Supriya Srivastava  |  May 10, 2019
#ToMaaWithLove: जब ज़िंदगी ने ठोकर मारी तब मां ने हाथ थामकर चलने के काबिल बनाया

एक मां के कई बच्चे हो सकते हैं लेकिन बच्चों के लिए मां एक ही होती है। मां की जगह कोई नहीं ले सकता। मां अक्सर कहती थी, बेटा इस दुनिया में जीना है तो लड़की बनकर नहीं बल्कि लड़का बनकर जीना होगा। मां की इसी सीख ने मेरी ज़िंदगी को आसान बनाया। मां ने ही मुझे इस बात का एहसास दिलाया कि मैं भी अपने दम पर कुछ कर सकती हूं वरना मैं तो ज़िंदगी के उस मोड़ पर आ गई थी, जहां से आगे का रास्ता नज़र ही नहीं आ रहा था। सच कहूं तो वो मां ही थी, जिसने बचपन में मेरी उंगली पकड़कर मुझे चलना सिखाया और जब ज़िंदगी ने ठोकर मारी तो एक बार फिर मेरा हाथ थामकर मुझे उठाया और ज़िंदगी से लड़ने के काबिल बनाया। मेरा नाम गुलेश चौहान है। मैं एक उबर ड्राइवर हूं और ये मेरी कहानी है।

मेरा बचपन माता- पिता के साए में जयपुर में गुज़रा। दुर्भाग्यवश मेरे पिता का साया हम पर से जल्दी उठ गया और सारी ज़िम्मेदारी मेरी मां के ऊपर आ गई। इसी के चलते मां ने महज 17 साल की उम्र में मेरी शादी हरियाणा के एक परिवार में करा दी। यहां मैंने एक बेटे को जन्म दिया। मेरे पति काम के सिलसिले में दिल्ली आ गए और कुछ समय बाद मैं भी उनके साथ रहने यहां आ गई मगर कहते हैं न कि खुशियों की उम्र ज्यादा लंबी नहीं होती। हमारी खुशियों को भी जैसे किसी की नज़र लग गई।

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साल 2003 में मेरे पति का एक एक्सीडेंट में आकस्मिक निधन हो गया, जिसके बाद मैं और मेरा बेटा बिलकुल अकेले पड़ गए। यहां तक कि ससुराल वालों ने भी मेरा साथ छोड़ दिया। यह मेरी ज़िंदगी का वो समय था, जब मैं टूटकर बिखरने लगी थी। तब मेरी मां ने आगे आकर मेरा साथ दिया और कहा, अब तू कहीं नहीं जाएगी, यहीं रहेगी। मुश्किलें आईं हैं तो डटकर उनका सामना कर। खुद के लिए नहीं तो अपने बेटे के लिए ही सही। मां ने डिसाइड किया कि अब से वो मेरे साथ दिल्ली में ही रहेंगी। तब मां ने 7 साल तक मेरे घर का खर्च उठाया।

मैं खाना काफी अच्छा अच्छा बनाती थी इसलिए मां की सलाह पर मैंने अपनी टिफिन सर्विस शुरू की और आसपास के ऑफिस में टिफिन सप्लाई करने लगी। शुरुआत में एक- दो ऑर्डर ही मिले मगर बाद में ये बढ़कर 40 तक पहुंच गए। अब लगने लगा था कि शायद ज़िंदगी वापस पटरी पर आ जाएगी मगर किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था। एक दिन मैं और मेरा बेटा स्कूटी से कहीं जा रहे थे कि रास्ते में हमारा बहुत बड़ा एक्सीडेंट हो गया। हम दोनों को बहुत चोटें आईं। मेरा बेटा तो जल्दी ठीक हो गया मगर मैं 3 महीने तक बिस्तर पर पड़ी रही। इस दौरान हमारी सारी सेविंग्स भी खत्म हो गईं। मेरी हिम्मत जवाब दे चुकी थी। तब एक बार फिर मां ने मेरा हौसला बढ़ाने की कोशिश की लेकिन इस बार मां की कोशिशें भी साथ नहीं दे पा रही थीं। ऐसे में मेरे बेटे दीपक ने मेरे हाथ- पैर की मालिश करनी शुरू की और धीरे- धीरे मैं वापस चलने- फिरने लगी।

तब तक हमारी टिफिन सर्विस पूरी तरह ठप्प हो चुकी थी। मां ने मुझे समझाया कि हार मानने से कुछ नहीं होगा, वापस अपने दम पर अपनी पहचान बनानी होगी। किस्मत से मुझे गाड़ी चलानी आती थी और मेरे पास लाइसेंस भी था। सोचा किसी के घर पर ड्राइवर की नौकरी कर लूंगी। मगर हमारे देश की विडंबना है कि यहां महिला ड्राइवर पर कोई भी विश्वास नहीं करता। सब केवल उसकी ड्राइविंग स्किल्स का मज़ाक उड़ाते हैं। मेरी ये उम्मीद भी बस टूटने ही वाली थी कि एक सहेली ने मुझे आर्मी के एक भइया अनिल कुमार का नंबर दिया। उन्हें अपनी कार उबर कंपनी के लिए लगानी थी और ड्राइवर के लिए वो सिर्फ किसी महिला की तलाश में ही थे।

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बहुत उम्मीदें लेकर मैं उनसे मिलने चली गई। उन्होंने मेरे चेहरे व हाथों पर चोट के कई निशान देखे। मैं उनके सामने बस रोए जा रही थी। वो शायद समझ गए थे कि मुझे काम की कितनी ज़रूरत है। उन्होंने बिना किसी बात की परवाह किए मुझे अपनी कार की ड्राइवर सीट पर बैठा दिया और खुद पीछे बैठ गए और कहा- गाड़ी चलाओ। मेरे हाथ कांप रहे थे। मैं कुछ समझ नहीं पा रही थी। खुद पर से मेरा विश्वास उठ चुका था। मैंने उनसे कहा, नहीं भइया मैं नहीं चला सकती, अगर कुछ हो गया तो आपकी कार को बहुत नुकसान हो जाएगा। उन्होंने मुझे बड़े भाई की तरह डांटते हुए कहा, “गाड़ी चला, कुछ नहीं होगा, ज्यादा से ज्यादा कार ठोक दोगी, ठोक दो मुझे कोई परवाह नहीं है लेकिन बिना कोशिश किए मैं तुम यहां से जाने नहीं दूंगा। उनकी हिम्मत ने मुझे हिम्मत दी और मैंने कार चलानी शुरू कर दी।

मां-बेटी का रिश्ता

वो दिन और आज का दिन, मैं रोज़ 12- 12 घंटे बिना रुके उबर कार चलाकर उबर की टाॅप ड्राइवर बन गई हूं। मेरी मां ने इस दौरान मेरा बहुत साथ दिया। आज मां इस दुनिया में नहीं हैं और मुझे हमेशा इस बात का अफसोस रहेगा कि ज़िंदगी के हर कदम पर मेरा साथ देने वाली मां के आखिरी समय पर मैं उनके साथ नहीं थी। मेरी मां कैंसर की मरीज़ थीं। निधन के एक दिन पहले उन्होंने मुझसे कहा कि एम्बुलेंस ला और मुझे वापस जयपुर ले चल। मैंने किसी तरह एम्बुलेंस मंगवाई और खुद गाड़ी चलाकर अपनी मां को दिल्ली से जयपुर ले गई। रात को मां ने मुझसे कहा, “बेटा तू बहुत थक गई होगी, जाकर आराम कर ले। मेरे पास बेटा और बहू रुक जाएंगे।” मैंने भी पता नहीं क्यों अपनी मां की बात मान ली और जाकर दूसरे कमरे में  सो गई।

उसी रात मेरी मां गुज़र गई। मुझे उससे शिकायत है कि क्यों जाते समय उसने मुझे आवाज़ नहीं दी। क्यों उसने मुझे दूसरे कमरे में सोने के लिए भेज दिया। मां रात में करवट भी लेती थी तो मेरी आंख खुल जाती थी। मगर उस दिन मुझे कैसे नहीं पता चला कि वो मुझे हमेशा के लिए छोड़कर जा रही है। मां की कमी मेरी ज़िंदगी में कोई पूरी नहीं कर सकता। मां के जाने के बाद मुझसे कोई नहीं पूछता, बेटा तुमने खाना खाया या नहीं, बेटा तू थक गई होगी आराम कर ले। मां, तुम बहुत याद आती हो। क्यों चली गई तुम मुझे छोड़ कर, क्यों तुमने जाने से पहले मुझे आवाज़ नहीं दी। क्यों…मां?

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