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कबीर के दोहे मीठी वाणी – Kabir ke Dohe or Sakhiyan

Deepali Porwal  |  Jan 11, 2022
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संत कबीर न तो हिन्दू थे और न ही मुसलमान, वे तो बस एक शानदार व्यक्तित्व वाले इंसान थे। इसी दुनिया के होने के बावजूद वे जाति-धर्म व दुनियादारी की अन्य बातों से परे थे। कबीर दास जी के दोहे (kabir ke dohe in hindi) हमें ज़िंदगी जीना सिखाते हैं, दुनिया की हर मुश्किल से लड़ने की ताकत देते हैं और दिल में भाईचारे और प्यार की भावना जगाते हैं। जब भी साहित्य की बात होती हैं संत कबीर दास जी का नाम जरूर आता है। खास कर के जब दोहो की बात होती हैं तो संत कबीर जी का नाम सबसे ऊपर होता है। अपने जीवन का अनुभव उन्होनें अपने दोहे के जरिये कही। कबीर का जन्म संवत 1455 की ज्येष्ठ शुक्ल पूर्णिमा को हुआ था। इसीलिए इस दिन उनकी याद में पूरे देश में कबीर जयंती मनाई जाती है। 2021 में 24 जून, बुधवार को कबीर दास जी की जयंती मनाई जाएगी। जीवन में सयम बरतना और सही गलत की पहचान करने के तरीके कबीर के दोहों में झलकती है। अगर आप भी जीवन में सही राह चुनना चाहते हैं तो एक बार जरूर पढ़ें कबीर के दोहे मीठी वाणी और साखी (Kabir ke Dohe or Sakhiyan in Hindi)। यहाँ हम आपके साथ शेयर कर रहे हैं कबीर के दोहे मीठी वाणी (Kabir Das ki Vani), कबीर दास जी के दोहे (Kabir Das ke Dohe in Hindi), कबीर दास की अमृतवाणी (Kabir अमृतवाणी), कबीर दास के भजन (Kabir Das Ke Bhajan) और कबीर दास की रचनाएं (Kabir Das ki Rachnaye in Hindi)

कबीर के दोहे साखी – Kabir ki Sakhiyan in Hindi

संस्कृत शब्द ‘साक्षित’ (साक्षी) को हिन्दी में साखी कहते हैं। संस्कृत साहित्य में आंखों से प्रत्यक्ष तौर पर देखने वाले के अर्थ में साक्षी शब्द का प्रयोग किया जाता था। सबसे पहले कालिदास ने कुमारसंभव में इसी अर्थ में साखी का इस्तेमाल किया था। आधुनिक देसी भाषाओं में (खासतौर पर हिन्दी निर्गुण संतों में) यह प्रयोग संत कबीर (saint kabir) द्वारा किया गया था। उनके गुरुवचन और संसार को व्यावहारिक ज्ञान देने वाली रचनाओं को साखी (kabir ji ke dohe) के नाम से जाना जाता है। पढ़िए कबीर दास जी के दोहे साखी।

1. पीछे लागा जाई था, लोक वेद के साथि।
आगैं थैं सतगुरु मिल्या, दीपक दीया साथि।।
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से कबीर दास जी कहते हैं कि पहले वे जीवन में सांसारिक मोह माया में व्यस्त थे। लेकिन जब उनकी इससे विरक्ति हुई तो उन्हें सद्गुरु के दर्शन हुए। सद्गुरु के मार्गदर्शन में उन्हें ज्ञान रूपी दीपक मिला और उसी से उन्हें परमात्मा के महत्व का ज्ञान हुआ। यह सब कुछ गुरु की कृपा से ही संभव हुआ था। 
2. तन कौं जोगी सब करैं, मन कौं विरला कोइ।
सब विधि सहजै पाइए, जे मन जोगी होइ।।
अर्थ – प्रस्तुत दोहे में संत कबीर का तात्पर्य है कि लोग बाहरी दिखावे के लिए साधु का रूप धारण कर लेते हैं मगर मन से वे साधु नहीं होते हैं। इसलिए हमें सिर्फ वेषभूषा से ही नहीं, बल्कि मन से भी साधु होना चाहिए। परमात्मा की प्राप्ति करने के लिए मन से साधु होना बेहद ज़रूरी होता है।
3. परवति-परवति मैं फिरया, नैन गंवाये रोइ।
सो बूटी पांऊ नहीं, जातैं जीवनि होइ।।
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से संत कबीर कह रहे हैं कि वे पर्वत-पर्वत घूमते रहे, रोते-रोते अपनी दृष्टि तक गंवा बैठे लेकिन उन्हें परमात्मा रूपी संजीवनी बूटी कहीं भी नहीं मिल सकी। इसी वजह से उनका जीवन अकारथ ही चला गया।
4. कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरष्या आइ।
अंतरि भीगी आत्मां, हरी भई बनराइ।।
अर्थ – इस दोहे में संत कबीर प्रेम का महत्व बता रहे हैं। उनके जीवन में प्रेम ने बादल के रूप में बारिश की थी। इस बारिश से उन्हें अपनी आत्मा का ज्ञान हुआ था। जो आत्मा उनके अंत स्थल में सोई हुई थी, वह जाग गई थी। उसमें एक प्रकार की नवीनता आ गई थी और उनका जीवन हरा-भरा हो गया था।
5. अंखड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि।
जीभड़िया छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि।।
अर्थ – इस दोहे में कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की आत्मा अपने प्रेमी परमात्मा को प्राप्त करने के लिए दिन-रात बाट जोहती है। ऐसा करते-करते उसकी आंखें भी थक जाती हैं। अपने प्रेमी परमात्मा का नाम लेते-लेते उसकी जीभ में छाले पड़ जाते हैं। इसी प्रकार वह अपने परमात्मा रूपी प्रेमी राम को पुकारता रहता है।
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कबीर के दोहे मीठी वाणी – Kabir Das ki Vani

कबीर के दोहे कई तरह के हैं (kabir ki vani)। यहां पढ़िए कबीर के दोहे मीठी वाणी।

1. पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
    ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।
अर्थ – कबीर दास जी के दोहे से समझ में आता है कि संसार की बड़ी-बड़ी पुस्तकें पढ़कर कितने ही लोग मृत्यु के द्वार तक पहुंच गए, मगर वे सभी विद्वान नहीं हो सके थे। वे कहते हैं कि इतन पढ़ने के बजाय अगर कोई प्रेम या प्रेम के ढाई अक्षर ही पढ़ ले यानी कि प्रेम के वास्तविक रूप को पहचान ले तो वह सच्चा ज्ञानी माना जाएगा।
2. माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
    कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।
अर्थ – इस दोहे में संत कबीर कह रहे हैं कि लंबे समय तक हाथ में मोती की माला घुमाने से भी ज़रूरी नहीं है कि मन के भाव बदल जाएं या मन की हलचल शांत हो जाए। ऐसे में कबीर सलाह देते हैं कि हाथ की इस माला को फेरने के बजाय मन के मोतियों (भावनाओं) को बदलना चाहिए।ये भी पढ़ें- तुलसीदास के दोहे
3. बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानि,
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि
अर्थ – इस दोहे से कबीर दास जी का तात्पर्य है कि जो लोग सही तरीके से बोलना जानते हैं, उन्हें पता है कि बोली एक अनमोल रत्न है। इसीलिए वे हृदय के तराजू से तोलने के बाद ही अपने शब्दों को रचते हैं।
4. अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप,
    अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।
अर्थ – इस दोहे में कबीर दास जी कहते हैं कि न तो बहुत अधिक बोलना अच्छी बात है और न ही ज़रूरत से ज्यादा चुप रहना ठीक रहता है। बिलकुल उसी तरह जैसे बहुत ज्यादा बारिश भी अच्छी नहीं और बहुत ज्यादा धूप भी ठीक नहीं रहती है।
5. कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर, 
    ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर।
अर्थ – इस दोहे के माध्यम से कबीर बता रहे हैं कि इस संसार में वे बस सबकी खैर चाहते हैं। वे मानते हैं कि अगर किसी से दोस्ती नहीं रख सकते हैं तो किसी के साथ लड़ाई भी न हो।

कबीर दास जी के दोहे – Kabir Das ke Dohe in Hindi

देशभर में कबीर दास जी के दोहे काफी प्रचलित हैं। स्कूल के बच्चों से लेकर हिन्दी साहित्य को विशेष तौर पर पढ़ने वाले स्टूडेंट्स तक, सभी को कबीर दास जी के दोहे पढ़ाए जाते हैं। जानिए संत कबीर के कुछ बेहद प्रचलित दोहे उनके हिन्दी अर्थों के साथ।

1. बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोय, 
    जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।
अर्थ – इस दोहे में संत कबीर कह रहे हैं कि जब वे बुराई खोजने गए थे तो उन्हें कोई भी बुरा व्यक्ति या भाव नहीं मिला था। जब उन्होंने अपने दिल में ढूंढा तो पाया कि उनसे ज्यादा बुरा तो कोई था ही नहीं।
2.  साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,
     सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।
अर्थ – प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी कह रहे हैं कि इस संसार को अनाज साफ करने वाले सूप जैसे सज्जनों की ज़रूरत है। ऐसे लोग जिन्हें सार्थक और निरर्थक के बीच के भेद का अंदाज़ा हो और वे सार्थक को संभालते हुए  निरर्थक को हटा सकें।

3. पर नारी का राचना, ज्यूं लहसून की खान।
कोने बैठे खाइये, परगट होय निदान।।
अर्थ – संत कबीरदास जी कहते हैं कि पराई स्त्री के साथ प्रेम प्रसंग करना लहसून खाने के समान है। उसे चाहे कोने में बैठकर खाओ पर उसकी सुंगध दूर तक प्रकट होती है।

4. दोस पराए देखि करि, चला हसन्त हसन्त
अपने याद न आवई, जिनका आदि न अंत।
अर्थ – कबीर दास जी के दोहे का तात्पर्य है कि हम दूसरों के दोष देखकर हंसते रहते हैं। इस दौरान हम अपने उन दोषों या गलतियों को याद तक नहीं करते हैं, जिनकी न तो कोई शुरुआत है न ही अंत (यानी कि कोई हद ही नहीं है)।

5. धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय।
अर्थ – प्रस्तुत दोहे में संत कबीर दास जी कहते हैं कि मन में धैर्य रखने से ही सब कुछ होता है। अगर कोई माली किसी पेड़ को सौ घड़े पानी से भी सींचता है, तब भी उस पेड़ में फल तो सही ऋतु आने पर ही लगेंगे।

कबीर दास की अमृतवाणी – Kabir Amritwani

कबीर दास जी के दोहों के साथ ही उनकी अमृतवाणी भी काफी लोकप्रिय हैं। उनकी अमृतवाणी (kabir das ki amritvani) से ज़िंदगी के फ़लसफ़े का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। वे ज़िंदगी की उलझी हुई समस्याओं को अपने अंदाज़ में बेहद आसान बना देते हैं। पढ़िए (kabir ki bani) कबीर दास की अमृतवाणी।

1. माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो
 
2. चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी
 
3. आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सूरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी
 
4. कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा

कबीर दास के भजन – Kabir Das Ke Bhajan

 

कबीर के दोहा की तरह ही उनके भजन भी सर्व (kabir das ke bhajan) प्रसिद्ध हैं। उनके भजन (kabir das ji ke bhajan) बेहद आसान भाषा में हैं और उनके अर्थों को समझना भी मुश्किल (sant kabir ke bhajan) नहीं है। पढ़िए उनके कुछ प्रसिद्ध भजन।

 

1. करम गति टारै
करम गति टारै नाहिं टरी।। टेक।।
मुनि वशिष्ठ से पंडित ज्ञानी सिद्धि के लगन धरि।
सीता हरन मरन दसरथ को बनमें बिपति परी।।1।।
कहं वह फन्द कहां वह पारधि कहं वह मिरग चरी।
कोटि गाय नित पुन्य करत नृग गिरगिट-जोन परि।।2।।
पाण्डव जिनके आप सारथी तिन पर बिपति परी।
कहत कबीर सुनो भै साधो होने होके रही।।3।।
 
2. दिवाने मन
दिवाने मन भजन बिना दुख पैहौ।।टेक।।
पहिला जनम भूत का पै हौ सात जनम पछिताहौ।
कांटा पर का पानी पैहौ प्यासन ही मरि जैहौ।।1।।
दूजा जनम सुवा का पैहौ बाग बसेरा लैहौ।
टूटे पंख मंडराने अधफड प्रान गंवैहौ।।2।।
 
3. रे दिल गाफिल
रे दिल गाफिल गफलत मत कर
एक दिन जम आवेगा।।टेक।।
सौदा करने या जग आया
पूजी लाया मल गंवाया
प्रमनगर का अन्त न पाया
ज्यों आया त्यों जावेगा।।1।।
सुन मेरे साजन सुन मेरे मीता
या जीवन में क्या क्या कीता
सिर पाहन का बोझा लीता
आगे कौन छुड़ावेगा।।2।।
परलि पार तेरा मीता खडिया
उस मिलने का ध्यान न धरिया
टूटी नाव उपर जा बैठा गाफिल गोता खावेगा।।3।।
दास कबीर कहे समुझाई
अन्त समय तेरा कौन सहाई
चला अकेला संग न को
किया अपना पावेगा।।4।।

4. बीत गए दिन
बीत गए दिन भजन बिना रे।
भजन बिना रे भजन बिना रे।।
बाल अवस्थ खेल गंवायो।
जब यौवन तब मान घना रे।।
लाहे कारण मूल गंवायो।
अजहुं न गई मन की तृष्णा रे।।
कहत कबीर सुनो भई साधो।
पार उतर गए संत जना रे।।

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