ये हिंदी कहानी है एक ऐसी लड़की की, जो सुंदर नहीं थी और जिसे असमय ही विधाता ने माता के स्नेहसिक्त आंचल से वंचित कर दिया। दादी की देखरेख में पली बढ़ी मंजुल ने आज वो मुकाम हासिल किया था जो अन्य लड़कियों के लिये प्रेरणा का विषय था।
आज मंजुल के यहां बहुत चहल-पहल है। उसने ‘एम. एस.’ में टॉप किया है और उसे एम्स हॉस्पिटल में नियुक्ति भी मिल गई है। पत्रकार मंजुल का साक्षात्कार लेने के लिये उतावले हैं।
“आप अपनी सफलता का श्रेय किसे देना चाहती हैं?”
“आपने कड़ी मेहनत तो की ही है, और किसका सपोर्ट रहा आपके साथ।”
मंजुल ने कहा, “मेरी चाची, सुनीता देवी। मेरी फीस भले ही मेरे पापा के अकाउंट से आई हो, पर प्रेरणा चाची ने दी है।”
उधर सुनीता देवी अतीत में विचर रहीं थी। जब जेठानी के न रहने पर, जेठ ने सब कुछ ‘अंगूर की बेटी’ को ही मान लिया था। और उसकी दादी मंजुल अपने साथ ले आई थीं। सुनीता ने मंजुल को देखा… सहमी हुई एक छह साल की लड़की और पूछा,
“नाम क्या है तेरा”
“मंजू”
“हाहाहा मंजू, मंजू का मतलब पता है तुझे?”
मंजुल ने न में सिर हिलाते हुए सुनीता की ओर देखा।
“मंजू मतलब सुंदर, जैसे तेरी ये बहनें हैं, गोरी चिट्टी, तू तो एकदम सांवली है, कुछ और नाम रखवा अपना।”
वो तो सास ने बीच में ही झिड़क दिया,
“क्या कुछ भी बोल रही है, इतनी छोटी बच्ची से कोई ऐसे बात करता है क्या।”
“हुंह, कौन सा झूठ बोली, सच ही तो कहा मैंने।”
…फिर जब पाठशाला में नाम लिखते समय मास्टर जी ने नाम पूछा तो मंजू ने कहा, “मंजुल”।
मंजू सोच रही थी कि उसने अपना नाम बदल लिया है, अब कोई उसकी हंसी नही उड़ायेगा।
पर वो अबोध गलत थी। अब भी उसे यदा-कदा मनहूस और रंग के कारण ताने सुनने को मिल ही जाते।
…समय अपनी निर्बाध गति से उड़ा जा रहा था।
और होनहार मंजू अपने आपको सांवली, कुरूप समझ कर अपनी सुंदरता की कमी को पढ़ाई से पूरा करने की कोशिश करती। उसी विद्यालय में जहां चाची के बच्चे औसत उत्तीर्ण होते, वह हमेशा प्रथम आती। पर खुशियां मनाने के नाम पर अम्मा जी आटे का हलवा बनाती। तिस पर भी सुनीता को एतराज ही होता। ग्यारवीं में वो भी खत्म, शायद दादी की जरूरत मंजुल से अधिक भगवान को थी। और पापा भी लीवर में पानी भरने और संयम न रख पाने के चलते दुनिया छोड़ गये।
आखिर बारहवीं में 89 प्रतिशत आने के कारण उसकी पढ़ाई का जिम्मा सरकार ने उठा लिया और आज होनहार मंजुल डॉक्टर बन गयी।
सुनीता की तंद्रा टूटी… पत्रकार के प्रश्न से, “आपने कैसे होनहार मंजुल को आगे बढ़ने के लिये प्रेरित किया, जबकि आपके अपने बच्चे शिक्षा में साधारण ही हैं।”
“देखिये, अपने बच्चों को सभी हौसला देते हैं, मैंने हमेशा सोचा कि कोई ये न कहे कि बच्चों में भेद किया है, इसीलिये मंजू को हमेशा प्राथमिकता दी, मंजू होनहार तो थी ही, आगे बढ़ती गयी।” बोलकर सुनीता मंजुल से नजरें चुराती भीतर चली गयी।
और मंजुल मुस्कुरा रही थी, शायद अब चाची ने उसे सुंदर मान लिया था आज, मंजू जो कहा था। आज तन की सुंदरता पर मन की सुंदरता की जीत हो गई थी।
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