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कहानी – आखिर क्या है शिक्षित होने की असली पहचान

Preeta Jain  |  Mar 23, 2018
कहानी – आखिर क्या है शिक्षित होने की असली पहचान

ये हिंदी कहानी है पढ़े- लिखों की अज्ञानता और एक अनपढ़ स्त्री के ज्ञान और समझदारी को अलग- अलग पलड़ों में तौलने की। यह जानने की कि अक्सर कई अनपढ़ लोग भी हमें जिंदगी का एक बड़ा सबक दे जाते हैं जो अच्छे- अच्छे पढ़े लिखे भी नहीं जानते।

कुछ दिन पहले एक परिचिता अपनी 9-10 साल की बच्ची के साथ हमारे यहां आई। वे लखनऊ के किसी अच्छे नामी स्कूल की प्रिंसिपल हैं। आसपास के शहरों में भी स्कूल की शाखाएं हैं। खाने-पीने के साथ- साथ बातचीत का दौर चल रहा था। बातचीत का विषय उनके स्कूल से संबंधित ही था। वो अपना ही गुणगान करते हुए बता रही थीं कि प्रिंसिपल होने के नाते उन्होंने क्या- क्या किया! शिक्षा के उच्च स्तर के अलावा उन्होंने उज्ज्वल भविष्य के लिए बच्चों को क्या- क्या सिखाया और इसी वजह से माना जा रहा है कि बच्चे काफी अनुशासित व समझदार बन रहे हैं और पूरे राज्य में उनके स्कूल का नाम रोशन हो चुका है। 

उनका कहना था कि जबसे उन्होंने जॉइन किया है, समझो! स्कूल दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। सभी अभिभावक चाहते हैं कि उनका बच्चा इसी स्कूल में पढ़े। उनकी यही बातें सुनते-सुनते काफी समय बीत गया। औपचारिकतावश चाय व बच्ची के लिए दूध सर्व किया गया। बच्ची का दूध पीना भी स्कूल के प्रोजेक्ट वर्क की तरह था। सारा ध्यान उसी पर था..वह इतना धीरे-धीरे दूध पी रही थी कि समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें, क्या नहीं। बच्ची के दूध के लिए काफी गर्मी होने के बावजूद किसी की परवाह ना करते हुए पंखे का स्विच ऑफ कर दिया गया।

इस पर महोदया ने हंसते हुए बताया कि ऐसे ही पंखा बन्द कर गर्म दूध पीने की आदत है इसे। बच्चे भी पता नहीं क्या-क्या करते रहते हैं। खाने में भी इतनी वैरायटी होने के बावजूद उसने मैगी-नूडल्स बनवाकर खाए। बाजार से आइसक्रीम मंगवाई, फिर भी थोड़ी सी ही खाई, बाकी ऐसे ही छोड़ दी। वह बच्ची कुछ देर के लिए भी आराम से बैठ ही नहीं रही थी। पूरे समय घर में रखे सजावट के सामान की उठा-पटक।

यह देखकर महसूस हो रहा था कि स्कूल से पहले प्रारंभिक व्यवहारिक शिक्षा तो घर पर ही होनी चाहिए। औरों के साथ-साथ अपने बच्चे को भी अनुशासन में रहना सिखाना जरूरी है। खैर! तभी अचानक दूध का गिलास बच्ची के हाथ से छूट गया और सारा दूध मेज से बहकर फर्श पर गिरने लगा। बच्ची तो बेफिक्र थी ही, प्रिंसिपल मैडम को भी दूध गिरने का कोई अफसोस नहीं था। वो बोलीं कि काम वाली बाई को साफ करने के लिए कह दो, सफाई कर देगी। आवाज सुनते ही मेरी कामवाली शांता बाई एकदम रसोई से एक बड़ा कटोरा लाई व मेज पर गिरे दूध को हाथों की सहायता से कटोरे में ड़ालने लगी। उसका प्रयास था दूध की बूंद-बूंद को सहेजना, ताकि जरा भी बर्बाद ना होने पाए। जितना समेट सकती थी समेटा पर बाकी तो गिर ही गया।

शांताबाई ने कहा, “कुछ तो इकट्ठा कर ही लिया है, इतने दूध में तो 5- 6 कप चाय घर में बना लूंगी। कम से कम दिल को शान्ति तो रहेगी कि गिरा हुआ दूध काम आ गया, बर्बाद नहीं हुआ।” फिर वो कहने लगी, “मैडम जी बड़ी मुश्किल से खाने-पीने का सामान इकट्ठा हो पाता है। अन्न का एक-एक कण मेहनत व पसीने की एक-एक बूंद बहाकर ही सहेजा जाता है। खाद्य-सामग्री बहुत अनमोल होती है सभी के जीने के लिए जरूरी है इसलिए कोशिश रहनी चाहिए कि इसका अधिक से अधिक उपयोग हो, दुरुपयोग ना होने पाए। पढ़ाई-लिखाई के बारे में तो मैं नहीं जानती पर इतना जरूर जानती हूं कि रोजमर्रा के जीवन में जो जरूरी है, उसका पालन करना सबसे पहले आना चाहिए। मेरा तो यही मानना है कि जो है उसी में खुश व संतुष्ट रहो और खाने-पीने की वस्तुएं बर्बाद ना करते हुए दाने-दाने का उपयोग करो।

यह कह शांता बाई तो अपने काम में लग गई, पर अब हमारी बारी यह तय करने की थी कि ज्यादा शिक्षित व समझदार कौन है? जो किताबी तौर पर ही शिक्षा दे रहा है. वर्तमान की नहीं भविष्य की सोच रहा है या वो जो वर्तमान जिन्दगी को सही व उपयोगी ढंग से जीने के तौर-तरीके बता रहा है। रोजमर्रा की जिन्दगी के जो वास्तविक तथ्य हैं उन्हें अमल में लाने की सीख दे रहा है। यदि सही तरीके से सोचा जाए तो शांताबाई का जीवन के प्रति नजरिया ही सही माना जाएगा। वास्तव में इस छोटी सी जिन्दगी को अधिक सार्थक व उपयोगी बनाने के लिये छोटी से छोटी वस्तुओं का भी सदुपयोग करना ही जीवन का वास्तविक उद्देश्य है। मन ही मन मैंने शांताबाई को धन्यवाद किया, क्योंकि उसने ही हमें यह व्यावहारिक सीख दी कि खुशहाल जीवन के लिए कण- कण की बर्बादी रोकने की कोशिश करना और अनुशासित संयमित जीवन जीना।

Photo by Ricardo Gomez Angel on Unsplash

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