यह कहानी है एक महिला की, जो अपना अकेलापन दूर करने के लिए अनचाही बच्चियों को सहारा देने लगती है और उनकी ममतामयी मां बन जाती है।
अलार्म बजते ही नींद खुली… फिर वही बैचेनी शुरू हो गई। पता नहीं कुछ दिनों से क्या हो रहा है? सुबह होते ही विचारों का अन्तर्द्वन्द्व शुरू हो जाता है कि मैं क्या कर रही हूं, पूरे दिन मैंने क्या खास किया? फिर नया दिन शुरू हो गया। वही घर-गृहस्थी, वही रूटीन, कुछ क्रिएटिव नहीं। जैसे दुनिया में आई थी, वैसे ही चली जाऊंगी। यही सोचते-सोचते बिस्तर से उठ गई।
हमारे घर से थोड़ी दूर एक और घर था, बाकी तो और भी दूर थे। काम करने वाली बाई से मालुम हुआ कि वहां एक बंगाली महिला रहती हैं जो पेशे से डॉक्टर हैं। उनका अपना तो कोई बच्चा नहीं है फिर भी 55 बच्चियों की ममतामयी “मां” हैं और यही उनका एकमात्र सहारा हैं। उन्होंने घर के बाहर एक पालना और घंटा लगाया हुआ है। जिन लोगों को लड़की नहीं चाहिए, वह बच्चियों को वहां लगे पालने पर लिटाकर घंटा बजा देते हैं। शुरूआत दो बच्चियों से हुई थीं और आज करीब 35 हैं। सभी को डॉक्टर दीदी स्कूल में पढ़ा-लिखा रही हैं, घुमाने भी लेकर जाती हैं। बड़ा खुशनुमा वातावरण है वहां का।
ऐसी बातें सुन-सुन कर मेरा भी उनसे मिलने को मन मचलने लगा। मिलने गई तो लगा कि सुनी बातें बिलकुल सच थीं। घर के आगे क्लीनिक था और घर के कोने बच्चों की खिलखिलाहट से गूंज रहे थे। घंटी बजाई तो करीब 50 साल की साधारण सी महिला ने दरवाजा खोला। मालुम हुआ यही डॉ. अनुभा हैं। सादगी, सौम्यता, मधुरता व बातों में अपनापन। उस दिन तो सिर्फ मिलकर आ गई। फिर आना- जाना शुरू हुआ। बातों ही बातों में डॉ. अनुभा ने बताया कि उनकी इकलौती बेटी शादी के बाद विदेश में रहती है। पति अब रहे नहीं। क्लीनिक से आने के बाद समय नहीं कटता था। समझ नही आ रहा था कि क्या करें और क्या नहीं? अकेलापन एक बड़ी समस्या था। जीवन के प्रति रवैया नकारात्मक होने लगा था। खुद को बेजान और थकी महसूस करने लगी थी…।
उन्होंने बताया कि एक दिन किसी महिला को लड़की पैदा होने की खबर सुनकर बुजुर्ग महिलाएं रोने लगी और फूल सी नवजात कन्या को कोसने लगीं। लग रहा था कि या तो इसे खत्म कर देगी या परेशान करेंगी। मन इतना आहत हुआ… जन्म लेने वाली लड़की का इसमें क्या दोष? इसने तो दुनिया में आकर आंख भी नहीं खोली और प्यार मोहब्बत की जगह नफरत भरे तानों से इसका स्वागत हो रहा है। इसका जन्म बदकिस्मती माना जा रहा है। यह कली तो खिलने से पहले ही मुरझा जाएगी…क्या इसका वर्तमान होगा और क्या भविष्य? घर आकर अजीब सी बैचेनी थी। एक डाक्टर होने के नाते प्रसव वेदना से तो मुक्ति दिलाई पर उसके बाद जिन्दगी भर की मां बच्ची की वेदना को तो जरा कम ना कर सकी। सोचने पर मजबूर हो गई कि यदि अभी तक नहीं किया तो अब क्यों नहीं?
दो-चार दिन की दुविधा और मानसिक तनाव के बाद उन्हें रास्ता दिख ही गया। क्यों ना “मैं ही हां….हां मैं ही” ऐसी बच्चियों को या अनचाहे बच्चों को अपने पास रख लूं जो परिवार के लिए बोझ बन जाते हैं। काफी सोच-विचार के बाद उन्हें लगा…कि यही सही होगा। ऐसे बच्चों के सुखद व उज्ज्वल भविष्य के लिए किसी को तो प्रयास करना होगा।” बस! फिर उन्होंने अपने विचारों को सार्थक बनाने की दिशा में काम करना शुरू किया। बच्चों की जरूरत के हिसाब से कपड़े बर्तन व फर्नीचर वगैरा की व्यवस्था करती गई, अच्छी शिक्षा व अन्य गतिविधियों के लिए भी सभी इंतजाम होते गए।
उन्होंने कहा कि देखो, कुछ समय पहले तक मैं बिल्कुल अकेली थी पर अब मेरे घर में इन बच्चियों की खिलखिलाहट से कितनी रौनक हो गई जिन्दगी में। फिर से इंद्रधनुषी रंग बिखर गए हैं। सच! कहूं तो जितनी जरूरत इन बच्चियों को मेरी थी उससे कहीं ज्यादा मुझे इनकी है। आज इतने बच्चे मेरे अपने हैं कि अकेलापन मेरे जीवन से बिलकुल हट गया है। है तो सिर्फ अपनों का साथ, प्यार, अपनत्व और स्नेह। इच्छा हमेशा यही रहेगी कि आगे और भी बच्चे मेरे घर का हिस्सा बनते रहें। “मैं रहूं ना रहूं” पर ये घर हमेशा इन बच्चियों का ही रहेगा। कोशिश है कि कभी किसी तरह की कमी इन्हें ना हो। ये खुद को कभी असहाय या बेबस ना मानें। जितना भी मेरे पास पैसा है, इनकी जरूरतों में लगा दिया.. कुछ पैसा बैंक में जमा करवा रही हूं ताकि मेरे ना रहने पर भी ये काम यूं ही चलता रहे। “वैसे मुझे पूरी उम्मीद हैं कि मेरे बाद भी कोई ना कोई अनुभा आती रहेगी इन बच्चियों को संभालने के लिए।” किसी ना किसी का प्यार भरा हाथ इनके सिर पर हमेशा रहे बस!“ यही मेरी अंतिम इच्छा तथा ईश्वर से प्रार्थना है। ”
डॉ. अनुभा से बातचीत करते हुए इतनी मग्न हो गई थी कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। घर आ गई पर यही सोचती रही कि…..अच्छे लोग हैं तभी इंसानियत जिन्दा है ये दुनिया निभ रही है। डॉ. अनुभा मिसाल हैं जिन्होंने इन अनचाही बच्चियों की खुशी में ही अपनी खुशियां ढूंढ़ ली।
डॉ. अनुभा से इतना मेल मिलाप हो गया था कि घर के काम से जब भी फुर्सत मिलती उनके घर चली जाती वहां बच्चियों के साथ समय बिताना मन को सुकून देने लगा था। एक दिन अनुभा कहने लगीं क्यों ना हम इन बच्चियों को पढ़ाई के साथ-साथ और कुछ सिखाना शुरू कर दें इनको मजा भी आएगा और एक हुनर ये सीख भी जाएंगी। मुझे यह सुझाव अच्छा लगा। कढ़ाई और पेंटिंग मैं अच्छी कर लेती हूं सो छोटे-छोटे रूमाल लेकर उन पर फूलपत्ती बना आसान सी कढ़ाई से शुरूआत की। इसी तरह रंग-बिरंगे रंगों से रूमाल को रंगना शुरू किया। कढ़ाई और पेन्टिंग करने में बच्चियों को बहुत मजा आने लगा। क्लीनिक से जब भी समय मिलता अनुभा भी उन्हीं के संग ये सब बनाते हुए बच्ची बन जातीं, उन्हीं के रंग में रंग जातीं। मुझे भी जब घर से समय मिलता, समय बिताने लगी। ये हालात हो गए कि समय कम पड़ने लगा, कहां समय कटता नहीं था। ज्यादा चुस्त तथा खुश महसूस करने लगी थी।
शरीर से अच्छा महसूस करने से घर व बच्चियों की देखभाल भी ज्यादा अच्छी हो रही थी। घर का वातावरण भी खुशनुमा हो गया था। शब्दों में बयां नही कर सकती उस अनुभूति को जो मेरी खुशियों की वजह बन गई थी। मैं जो पाना चाहती थी वो मंजिल मुझे मिल गई थी….।
इन्हें भी देखें –