भारतीय सभ्यता में हिंदू धार्मिक मान्यताओं में श्राद्ध, यानी पितृ पक्ष का बहुत ही अहम योगदान है। प्रति वर्ष आने वाले इस समय में सभी हिंदू धर्म के अनुयायी भारतीय अपने पित्रों के प्रति श्रद्धा, आभार और स्मरण व्यक्त करने तथा उनकी मोक्ष प्राप्ति के लिए हवन-पूजन, तर्पण व दान-पुण्य आदि करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इससे उनके पूर्वजों का आशीर्वाद उन पर पूरे परिवार सहित बना रहेगा और सभी प्रकार के रोगों-शोकों से उनकी रक्षा होगी। इस पक्ष की सबसे सुंदर बात ये है कि यह किसी अंधविश्वास पर केंद्रित नहीं है, बल्कि यदि इसके मूल में गहराई से देखा जाए तो यह अपने परिवार के पूर्वजों व पित्रों के प्रति सम्मान का भाव रखने के अतिरिक्त प्रकृति व समस्त जीव-जंतुओं से मनुष्य जाति के जुड़ाव को दर्शाता है, क्योंकि इस समय पर पितरों के नाम पर जो भी दान-पुण्य या भोजन तर्पण इत्यादि किया जाता है, उसमें पशु-पक्षियों व वनस्पति की सहभागिता प्रमुखता से है।
सभी हिंदू परिवार श्राद्ध पक्ष के प्रति बहुत ही श्रद्धा भाव रखते हैं। किसी भी पूजन या आस्था की मज़बूती उस समय और बढ़ जाती है, जब उससे जुड़े विविध पक्षों के बारे में हम गहराई से जानते हों, उसके कारण जानते हों, उसके नियम आदि जानते हों। आइए, फिर श्राद्ध अथवा पितृ पक्ष से जुड़े सभी बिंदुओं पर हम वे सारे पक्ष जानने का प्रयास करते हैं, जो इसका अटूट भाग हैं।
श्राद्ध अथवा पितृ पक्ष क्या हैं – What Is Pitru Paksha?
हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार श्राद्ध अथवा पितृ पक्ष वह समय है, जिसमें सनातन धर्म यानी हिंदू धर्म के मानने वाले लोग अपने पूर्वजों को हवन-पूजन तथा भोजन व जल अर्पण कर उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं और अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति और मोक्ष प्राप्ति के लिए दान आदि करते हैं। पितृ पक्ष की समय अवधि 16 दिन की होती है। ऐसा माना जाता है कि इस समय यानी श्राद्ध काल में हमारे पूर्वज मोक्ष प्राप्ति की कामना लिए अपने परिजनों के पास अनेक रूपों में आते हैं। इस काल में अपने पितरों के प्रति सम्मान और आभार का भाव रखते हुए उनकी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध किया जाता है और उनसे अपनी ज़िंदगी में खुशहाली के लिए आशीर्वाद की प्रार्थना की जाती है। साथ ही हम ये भी प्रार्थना करते हैं कि हमारे पित्रों का आशीर्वाद हम पर व हमारे परिवार पर हमेशा बना रहे और हमें सद्बुद्धि व समस्त सद्गुणों से युक्त करे।
श्राद्ध, यानी पितृ पक्ष का क्या महत्व है – Importance Of Pitru Paksha
हिंदू धर्म में ज्योतिषीय गणना के अनुसार पितृ हमारी कुंडली में सुख और स्थायित्व के स्वामी होते हैं। स्थायित्व, यानी नौकरी-व्यापार मे तरक्की और स्थायित्व, धन का प्रवाह लगातार बना रहे , शादी, संतान आदि में संतुलन का सुख हमें मिले, ऐसा पितरों की कृपा से ही संभव हो पाता है। परिवार की वंश वृद्धि और सुख भी हमें उन्हीं के आशीर्वाद से मिलते हैं। यूं तो हर महीने की अमावस्या को हमें एक संक्षिप्त तर्पण करना चाहिए, लेकिन जो लोग समय की व्यस्तता के कारण ऐसा नहीं कर पाते, वे साल में एक बार इस श्राद्ध काल, यानी पितृ पक्ष में ऐसा कर सकते हैं। हमें अपने पूर्वजों का आशीर्वाद पाने और उनके प्रति आभार व्यक्त करने का यह एक बेहतरीन अवसर होता है।
श्राद्ध पूजा का विधि-विधान How To Do Shradh or Pitru Paksha
श्राद्ध तो है ही श्रद्धा का दूसरा नाम। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के अयोध्या कांड में कहा है कि तर्पण तो केवल जल और जो भी आप खाते हैं, उससे भी किया जा सकता है। यदि विशेष रूप से हम श्राद्ध पक्ष की ही बात करें तो ये किसी की मृत्यु के समय होने वाला श्राद्ध नहीं, बल्कि वार्षिक रूप से आने वाले पितृ पक्ष में होने वाला तर्पण है तो इसे यथाशक्ति करना। इस समय पर शुद्ध मन, वचन और कर्म से किया गया पूजन और दान सबसे उत्तम रहता है।
पित पृक्ष में पिंड दान ज़रूर का बड़ा महत्व बताया गया है, ताकि देवों व पितरों का आशीर्वाद मिल सके। अपने पितरों के पसंदीदा खाने को बना कर अर्पित करना अच्छा माना जाता है। आमतौर पर पितृ पक्ष में अपने पूर्वजों के लिए कद्दू की सब्जी, दाल-भात, पूरी व खीर बनाना शुभ माना जाता है। पूजा के बाद पूरी व खीर और अन्य सब्जियां एक थाली में सजाकर गाय, कुत्ता, कौआ और चींटियों को देना ज़रूरी होता है। कहा जाता है कि कौवे और बाकी पक्षियों द्वारा भोजन ग्रहण करने पर ही पितरों को सही मायने में भोजन प्राप्त होता है, क्योंकि पक्षियों को पितरों का दूत व विशेष रूप से कौवे को उनका प्रतिनिधि माना जाता है।
यह ज़रूरी है कि पितरों को धन से नहीं, बल्कि भावना से प्रसन्न करना चाहिए। विष्णु पुराण में भी कहा गया है कि कोई निर्धन व्यक्ति, जो कि नाना प्रकार के पकवान बनाकर अपने पितरों को विशेष भोजन अर्पित करने में सक्षम नहीं हैं, यदि वह अपना सामान्य भोजन, यानी मोटा अनाज अथवा चावल या आटा तथा यदि संभव हो तो कोई सब्जी-साग व फल भी यदि पितरों के प्रति पूर्ण आस्था रखते हुए किसी ब्राह्मण को दान करता है तो भी उसे अपने पूर्वजों का पूरा आशीर्वाद मिल जाता है। रामायण के एक प्रसंग के अनुसार श्रीराम जंगल में थे। जब उन्हें अपने पिता दशरथ की मृत्यु की समाचार मिला, तब उन्होंने इंगुदी पेड़ का फल कुशा घास से बनी थाली में रख कर भोजन के तौर पर दान किया, यानी श्राद्ध कर्म में भाव ही सबसे ऊपर है, बाकी सभी बातें उसके बाद आती हैं। अगर मोटा अनाज व फल देना भी मुश्किल हो तो सिर्फ तिल मिश्रित जल को तीन उंगुलियों में लेकर भी अपने पितरों को तर्पण किया जा सकता है। ऐसा करने से भी श्राद्ध की पूरी प्रक्रिया होना माना जाता है, पर तिल का प्रयोग तब नहीं करना चाहिए, जब आप अपने दूसरों पितरों का तो श्राद्ध करना चाहते हैं, लेकिन आपके पिता जीवित हों। यदि माता-पिता, दादा-दादी इत्यादि किसी के निधन की सही तिथि का ज्ञान नहीं है तो इस श्राद्ध पक्ष के अंतिम दिन, यानी अमावस्या को श्राद्ध करने से भी यह कर्म पूरा माना जाता है।
पितृ पक्ष अथवा श्राद्ध कब होते हैं – When Is Pitru Paksha or Shradh?
हिंदू कैलेंडर के अनुसार उत्तर भारतीय पंचांग में पितृ पक्ष, यानी श्राद्ध भाद्रपद में पूर्ण चन्द्रमा के दिन या पूरनमासी के अगले दिन से शुरू होता है। 12 महीनों के बीच में छठे महीने, यानी भाद्र पक्ष की पूर्णिमा से (यानी आखिरी दिन से) 7वें माह अश्विन के पहले पांच दिनों में यह पितृ पक्ष मनाया जाता है। सूर्य भी अपनी प्रथम राशि मेष से गोचर करता हुआ जब छठी राशि कन्या में एक महीने के लिए भ्रमण करता है, तब ही इस सोलह दिन का पितृ पक्ष मनाया जाता है। उत्तर और दक्षिणी भारतीय लोग श्राद्ध की विधि लगभग समान दिनों में ही करते हैं।
श्राद्ध कर्म के नियम क्या हैं – What Are The Rules Of Shradh Karma?
सनातन धर्म में कोई नियम कट्टर नियम नहीं होता। सब समय और यथाशक्ति अनुसार होता है, लेकिन अगर हम विधि-विधान की या पुरातन मान्यताओं की बात करें तो जिस तरह सूर्य ग्रहण व चंद्र ग्रहण लगने पर कोई भी किसी भी शुभ कार्य की मनाही होती है, वैसे ही पितृ पक्ष में भी शुभ कार्य वर्जित होते हैं, जैसे-शादी- विवाह करना, मकान या वाहन की खरीदारी वगैरह। श्राद्ध दोपहर 12 बजे के लगभग करना ठीक माना जाता है। इसे किसी नदी किनारे या फिर अपने घर पर भी किया जा सकता है।
परंपरा अनुसार, अपने पितरों के आवाहन के लिए भात, काले तिल व घी का मिश्रण करके पिंड दान व तर्पण किया जाता है। इसके बाद विष्णु भगवान व यमराज की पूजा-अर्चना के साथ-साथ अपने पितरों की पूजा की जाती है। अपनी तीन पीढ़ी पूर्व तक के पूर्वजों की पूजा करने की मान्यता है। ब्राह्मण को घर पर आमंत्रित कर उनके द्वारा पूजा करवाने के उपरांत अपने पूर्वजों के लिए बनाया गया विशेष भोजन अर्पित किया जाता है। फिर आमंत्रित ब्राह्मण को भोजन करवाया जाता है। ब्राह्मण को दक्षिणा, फल, मिठाई और वस्त्र देकर प्रसन्न किया जाता है व सभी परिवारजन उनसे आशीष लेते हैं। पूजा के बाद सारा भोजन एक थाली में सजाकर गाय, कुत्ता, कौवा और चींटियों को देना अति आवश्यक माना जाता है। पितृ पक्ष में अपशब्द कहना, क्रोध करना, छल-कपट करना, किसी का अहित करना बहुत बुरा समझा जाता है। इस दौरान जातक के मन, वाणी और कर्म में शुद्धता का होना बहुत जरूरी है। किसी भी प्रकार का व्यसन या दुर्व्यवहार इस समय पूरी तरह से वर्जित होता है। इसी लिए किसी भी प्रकार का नशा, तामसिक भोजन, मदिरापान, मांसाहारी भोजन वगैरह सभी मना होता है। अपने पूर्वजों का आशीर्वाद पाने के लिए सबसे पहली चीज़ शुद्धता है।
श्राद्ध और पितृ पक्ष के बारे में अकसर पूछे जाने वाले सवाल और उनके जवाब – FAQ’s
1. सवाल – क्या पितृ पक्ष के विधि-विधान महिलाएं भी कर सकती हैं? Can women also do legal legislation of Shraddha Paksha
हम एक ऐसी संस्कृति का हिस्सा है, जो पुरुष प्रधान मानी जाती है, इसलिए नियमानुसार घर के बड़े पुरुष यानी हेड ऑफ द फैमिली को ही श्राद्ध करना चाहिए। पुरुष पूर्वजों का नाम जोड़कर वंश वृद्धि करता है और विवाह के बाद स्त्री उस पुरुष के वंश की वृद्धि-कारक होती है। जिस वंश की वृद्धि में स्त्री भागीदार होती है, वह उसी वंश का नाम वह अपने नाम से जोड़ती है, इसलिए रीति के अनुसार घर का प्रधान पुरुष ही श्राद्ध करता है, परंतु अगर घर में पुरुष नहीं है तो घर की बड़ी महिला, यानी परिवार की मुखिया भी किसी ज्ञानी पंडित द्वारा श्राद्ध करवा सकती है।
2. सवाल – श्राद्ध की पूजा घर पर ही करनी चाहिए या किसी मंदिर अथवा तीर्थ का विशेष महत्व है? Worship of Shraddha Paksha should be done at home or any temple or shrine has special significance?
श्राद्ध पूजा घर के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में बैठ कर दक्षिण-पश्चिमी दिशा की ओर मुख करके भी की जा सकती है या काशी, गया, बोधगया, हरिद्वार,प्रयागराज आदि स्थल पर जाकर भी कर सकते है। यह यथाशक्ति अनुसार ही करने का विधान है। मतलब ये कि इंसान की जितनी सामर्थ्य है, उसी के अनुसार अपने पूर्वजों को मान दिया जाता है। इसमें किसी प्रकार के आडंबर या दिखावे की कोई जरूरत नहीं होती है। रामायण में भी अयोध्या कांड 103 सर्ग 30 वे श्लोक में श्रीराम ने अपने पिता दशरथ का श्राद्ध वनवास के समय यथाशक्ति ही किया था।
3. सवाल – श्राद्ध के दिनों में क्या कोई शुभ काम नहीं करना चाहिए? Is there any auspicious work to be done on the day of Shraddha?
मान्यता के अनुसार पितृ पक्ष में शुभ कार्य वर्जित होते हैं, क्योंकि पितृ पक्ष चातुर्मास में पड़ता है, जिस दौरान ऐसी मान्यता है कि सृष्टि के पालनहार श्री हरि विष्णु ध्याननिद्रा में होते हैं। ज्योतिष गणना अनुसार भी इस दौरान कोई नया काम स्थायी नहीं रहता, न ही शुभ फल लाता है। वैसे भी देखा जाए तो हर समय कुछ पाने का ही नहीं होता, बल्कि कुछ समय उन लोगों के प्रति आभार व्यक्त करने और उनके लिए प्रार्थना करने का भी होता है, जिनकी वजह से हमने बहुत-कुछ पाया होता है, जैसे- हमारे पितृ।
4. सवाल – क्यों इन दिनों नया सामान खरीदने की भी मनाही होती है ? Why is buying new goods forbidden these days?
इन दिनों आप नए कपड़े खरीद कर दान कर सकते हैं, लेकिन रीति के अनुसार अपने लिए नहीं खरीदते हैं। यह छोटी-छोटी बातें सांकेतिक रूप में हमें कुछ समय के लिए पूरी तरह से अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर अपने पूर्वजों के बारे में सोचना सिखाती हैं। ये रोक-टोक श्रद्धांजलि की ही अभिव्यक्तियां होती हैं। हालांकि वेदों में ऐसा नहीं लिखा कि नए कपड़े नहीं खरीदने चाहिए, मगर ज्योतिषियों गणनाओं में ऐसा पाया जाता है कि इस दौरान कोई भी नई खरीद लंबे समय में शुभ फल नहीं देती। ये सब ऊर्जाओं का एक खेल है। कुछ ग्रहों की ऊर्जा, कुछ मनस द्वारा बनाई ऊर्जा, पितृ भी ऊर्जा के ही रूप में हैं। नए कपड़े जब आप ब्राह्मणों को या किसी जरूरतमंद को दान करते हैं तो यह आपके पितरों के लिए श्रद्धांजलि होती है।
5. सवाल – क्या इस बीच शादी नहीं करनी चाहिए? Shouldn’t we get married in the meantime?
विवाह या शादी एक शुभ कार्य है। भौतिक जीवन की एक नई शुरुआत इस पक्ष में नहीं की जाती। हर कर्म को फलित करने का एक नियम और सही समय होता है। ऐसी मान्यता है कि सभी कार्य एक ऊर्जा के अंश हैं। हम भी ऊर्जा एक अंश है और पृथ्वी की ऊर्जाओं से प्रभावित होते हैं। इस समय की ऊर्जा भोग संयोग की बजाय त्याग-वियोग की और आकर्षित करती है, इसलिए सांकेतिक रूपों में विवाह आदि कार्यों की मनाही होती है।
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