चेहरे पर पहाड़ जैसी दृढ़ता वाली बेहद साधारण सी एक लड़की। जैसे ही वह सामने आई मुझे समझ आ गया कि यही है वह अरुणिमा जिसने पूरे देश की लड़कियों को कभी, किसी भी परिस्थिति में हार न मानने का सबसे बड़ा सबक दिया है। यही है वह अरुणिमा सिन्हा, जिसने एक पैर कट जाने के बावजूद बेचारी बनकर जि़ंदगी गुजारना गवारा नहीं किया बल्कि पैर कटने के साथ ही तय कर लिया कि उसे जिंदगी यूं ही रो-रोकर नहीं गुजारनी, कुछ कर दिखाना है। सिर्फ अपने लिए ही नहीं, बल्कि अपने प्रदेश- अपने देश की बहुत सी लड़कियों का भाग्य भी बनाना है। अरुणिमा सिन्हा की सक्सेस स्टोरी से हम सीख सकते हैं कि कैसे अपने आत्मविश्वास के बल पर कुछ भी संभव करके दिखाया जा सकता है।
हौंसला हो तो कुछ असंभव नहीं
उत्तर प्रदेश के अंबेडकर नगर निवासी अरुणिमा सिन्हा ने चरितार्थ किया है कि हौंसला हो तो कुछ भी असंभव नहीं है। अरुणिमा अपना एक पैर खो चुकी हैं और उनके दूसरे पैर में भी स्टील की कई रॉड पड़ी हैं। अरुणिमा ने वर्ष में दुनिया की सबसे ऊंची एवरेस्ट चोटी फतह की, लेकिन उसके बाद भी वो शांति से नहीं बैठीं। अरुणिमा ने सात महाद्वीपों की सबसे ऊंची सात चोटियां फतह करने का भी लक्ष्य बनाया हुआ है, जिनमें अब तक वे 5 चोटियां फतह कर चुकी हैं। ये जज़्बा, ये जोश और ये जुनून किसी-किसी में ही होता है।
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लड़कियों में देखना चाहती हैं बदलाव
एवरेस्ट के बाद अरुणिमा अब तक तंजानिया के Mount Kilimanjaro, रूस स्थित Mount Elbrus, अर्जेंटिना का Mount Aconcagua, ऑस्ट्रेलिया स्थित Mount Kosciuszko और इंडोनेशिया स्थित Mount Carstensz Pyramid पर भारतीय झंडा फहरा चुकी हैं। वे कहती हैं, ‘इसके पीछे मेरा मकसद प्रशंसा पाना या फिर कोई रिकॉर्ड बनाना नहीं है। मैं तो अपने देश की पिछड़ती हुई लड़कियों में नये जोश और हिम्मत का संचार करना चाहती हूं। मैंने खुद अपने अंदर जो आत्मविश्वास- जो बदलाव महसूस किया है, मैं वही बदलाव और आत्मविश्वास अपने देश की सभी ऐसी लड़कियों में देखना चाहती हूं जो खुद को किसी लायक नहीं समझती हैं। वे खुद नहीं जानती कि उनमें कितना कुछ है। ऐसा कुछ नहीं होता जो लड़कियां न कर सकें।
हिम्मत की पराकाष्ठा
राष्ट्रीय स्तर पर बॉलीवॉल खेलने वाली अरुणिमा सिन्हा को अप्रैल 2011 मे ́ गुंडों ने चलती ट्रेन से नीचे फेंक दिया था। इस हादसे में उनका बायां पैर बुरी तरह जख्मी हो गया था। हादसे को याद करते हुए अरुणिमा गंभीर हो जाती हैं, “मैं पटरियों के बीच कटी टांग के साथ सारी रात पड़ी रही। कैसे आधी बेहोशी की सी हालत में रात गुज़री। भगवान की कृपा है जो मैं सुबह तक ऐसी हालत में रही कि सुबह वहां आए लोगों को अपने घर का फोन नंबर बता सकी। वह लोग मुझे जिस अस्पताल में ले गए, वहां बेहोशी के बावजूद मैं डॉक्टरों की बातें सुन पा रही थी। इंफेक्शन इतना फैल चुका था कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें। वहां एनेस्थीसिया तक की सुविधा नहीं थी। तब तक मेरे घर से भी कोई वहां नहीं पहुंचा था। तब मैंने ही ज़ोर देकर कहा कि मुझे बेहोश किए बिना मेरा पैर काट दें। शायद उन्हे ́ मेरी हिम्मत देखकर अच्छा लगा होगा तभी अस्पताल के फार्मासिस्ट और डॉक्टर ने अपना ही खून देकर मेरी जान बचाई।” अरुणिमा सिन्हा की रीढ़ की हड्डी में भी तीन फैक्चर पाए गए थे। उनके दाएं पैर की भी दो हड्डियां टूट चुकी थी, जिन्हें ठीक करने के लिए कुछ दिन बाद ऑपरेशन किया गया।
बछेन्द्रीपाल को श्रेय
अरुणिमा सिन्हा अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय एवरेस्ट फतह कर चुकी पहली भारतीय महिला बछेन्द्री पाल को देती हैं। वे कहती हैं, “मैडम मेरे लिए एक देवी के समान हैं। उन्होंने जो मेरे लिए किया है, वैसा बहुत कम इंसान किसी के लिए करते है ́।” लेकिन वह अरुणिमा सिन्हा की ही हिम्मत थी, जिसे देखकर बछेन्द्री पाल भी दंग रह गई थीं। अरुणिमा सिन्हा बताती हैं कि उस भयानक हादसे के बाद अस्पताल में पड़े- पड़े ही उन्होंने एवरेस्ट फतह करने की ठान ली थी।
इसी जुनून को पूरा करने के लिए किसी तरह उन्होंने बछेन्द्री पाल का फोन नंबर हासिल कर उनसे बात की और अगले ही दिन अस्पताल से अपने घर न जाकर सीधे उनसे मिलने जमशेदपुर जा पहुंची। जब बछेन्द्री पाल को पता लगा कि कल रात जिस लड़की ने दिल्ली के एक अस्पताल से उनसे फोन पर बात की थी, वह सुबह-सुबह जमशेदपुर के रेलवे स्टेशन से फोन कर रही है तो उन्हें उसके जुनून पर भरोसा करना ही पड़ा। वे तभी समझ गई थीं कि यह लड़की आम नहीं, कुछ खास है और भविष्य में जरूर कुछ कर दिखाएगी।
ट्रेनिंग और एडवेंचर शिविर
फिर बछेन्द्री पाल की ट्रेनिंग में अरुणिमा ने उत्तरकाशी में ‘टाटा स्टील एडवेंचर फाउंडेशन शिविर’ में हिस्सा लिया। वे बताती हैं, “ट्रेनिंग के दौरान जब मैंने पहाड़ चढ़ना शुरू किया, तब मैं धीरे-धीरे चढ़ पाती थी। मेरे साथी मुझसे कहते, हम आगे चल रहे हैं, तुम आराम से आ जाना। तब मुझे बहुत बुरा लगता था, लेकिन कुछ ही महीनों के बाद हालात इतने बदल गए कि मैं ऊपर सबसे पहले पहुंच कर बाकी लोगों का इंतजार किया करती थी। तब सभी लोग मुझसे पूछते थे कि मैं आखिर खाती क्या हूं।”
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अदम्य इच्छाशक्ति
इसके बाद जब अरुणिमा सिन्हा ने एक ही पैर के साथ एवरेस्ट की चढ़ाई पूरी कर ली तो लोगों को उनकी इच्छाशक्ति को मानना ही पड़ा और इसके साथ ही अंग गंवाकर एवरेस्ट पर पहुंचने वाली वह पहली भारतीय बन गईं। आजकल अरुणिमा सिन्हा दुनिया की सबसे ऊंची सात चोटियों को फतह करने के अपने जुनून के साथ-साथ खेलों में और पर्वतारोहण क्षेत्र में बच्चों को तैयार भी कर रही हैं। वे कहती हैं कि मेरे पास ज्यादा तो कुछ नहीं है लेकिन जो भी है उससे अगर मैं जरूरतमंद बच्चों के कुछ भी कर सकी तो अपने जीवन को सार्थक समझूंगी। इसके अलावा वे लखनऊ में एक स्पोर्टस् एकेडमी भी बनाने की कोशिश कर रही हैं, जो खेलों के क्षेत्र में विकलांग और गरीब बच्चों को बढ़ावा देगी।
फोटो सौजन्य – arunimasinha.com
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