बॉलीवुड के इस सुनहरे दौर को प्रयोगों का दौर भी कहा जाता है। स्क्रिप्ट और शानदार अभिनय से रची-बसी एक-से-बढ़कर एक फिल्में बन रही हैं। जहां एक्ट्रेसेस मात्र अपनी अदायगी के दम पर दर्शकों को सिनेमाघरों तक खींच पाने में सफल हो रही हैं, वहीं ‘मरजावां’ (Marjaavaan) जैसी फिल्में दर्शकों को कई दशक पीछे धकेल रही हैं।
फिल्म की शुरुआत में रघु (सिद्धार्थ मल्होत्रा-Sidharth Malhotra) बिल्कुल हीरोगिरी के साथ एंट्री लेते हैं और सनी देओल की याद दिलाते हुए दुश्मनों को गिराते चले जाते हैं। टैंकर माफिया अन्ना ने गटर के किनारे पड़े मिले रघु को न सिर्फ जीना सिखाया था, बल्कि अपने बेटे जैसा भी माना था। अन्ना के राइट हैंड के तौर पर मशहूर रघु भी अन्ना के इशारों पर ही चलता है। यह फिल्म और इसकी शुरुआत आपको कई पुरानी बॉलीवुड और साउथ इंडियन फिल्मों की याद दिलाने के लिए काफी है। कहानी आगे बढ़ती है तो रघु (सिद्धार्थ मल्होत्रा) के साथ ही उसके तीन खास दोस्तों से भी मुलाकात होती है। उन दोस्तों के साथ ही पूरी बस्ती रघु की दीवानी है। बार डांसर आरज़ू (रकुल प्रीत-Rakul Preet) के पर्दे पर आते ही फिल्म की आगे की पटकथा भी काफी स्पष्ट हो जाती है।
कई पुरानी फिल्मों की ही तरह इसमें भी उसी पैटर्न को दोहराया गया है, आरज़ू रघु को चाहती है, जबकि रघु के मन में उसके लिए कोई भावना नहीं है।
अन्ना का एक तीन फुट का बेटा है, विष्णु (रितेश देशमुख-Riteish Deshmukh), जो रघु से बेइंतेहा नफरत करता है और हर कीमत पर उसे मार देना चाहता है। रितेश ने विष्णु के कैरेक्टर में जान फूंकने की पूरी कोशिश की है, मगर जब फिल्म का ट्रीटमेंट ही 80 के दशक का था तो वे भी उसमें ज्यादा कुछ कर नहीं सकते थे। अपनी नफरत और बदले की आग में अंधे विष्णु को रघु के सिवाय कुछ दिखता ही नहीं है।
तभी रघु की मुलाकात एक गूंगी कश्मीरी लड़की ज़ोया (तारा सुतारिया-Tara Sutaria) से होती है। ज़ोया और रघु एक-दूसरे से प्यार करने लगते हैं और ज़ोया की अच्छाइयों का असर रघु पर पड़ने भी लगा। रघु को हराने और नीचा दिखाने के लिए विष्णु ज़ोया को रघु के हाथों ही मरवा देता है। उसके बाद शुरू होती है रघु के इंतकाम की कहानी, जो घिसटती चली जाती है।
फिल्म में रवि किशन भी हैं, जो एक पुलिस इंस्पेक्टर की भूमिका में हैं, पर अफसोस कि यहां उनके करने के लिए भी कुछ खास नहीं था।
बात करें फिल्म के डायलॉग्स की तो वे भी पुराने हैं। एक भी डायलॉग ऐसा नहीं है, जिसे दर्शक 2 घंटे और 30 मिनट बाद थिएटर से निकलने के बाद याद भी रख सकें। अलबत्ता कुछ गंभीर से लगने वाले डायलॉग्स ने हंसा ज़रूर दिया कि इस फिल्म में यह है ही क्यों! फिल्म के स्टार्स को छोड़कर इसमें कुछ भी नया नहीं लगा। 21 वीं सदी में हीरो को शहर के माफिया के गुंडों से लड़ता हुआ देखना कुछ अजीब था। लव स्टोरी में भी कोई नयापन नहीं था। रघु की मोहब्बत को विष्णु का अपने कब्जे में कर लेना और बार डांसर्स व उनकी बोली लगाना आज की कहानी तो नहीं लगती है। बॉलीवुड बहुत आगे जा चुका है और यह फिल्म एक बार फिर कई पुराने दशकों की सैर करने पर मजबूर करती हुई लगती है।
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