हर फ़िल्म या किताब के आरम्भ में डिस्क्लेमर या आत्मस्वीकारोक्ति रहती है, सो पहले ही ये स्पष्ट कर दूं कि ना तो मैं महिला सशक्तिकरण के पक्ष में लिख रही हूं और ना विरोध में! मैं तो केवल कुछ प्रश्न आपके समक्ष रख रही हूं, जिनके उत्तर आपको स्वयं खोजने होंगे! आख़िर क्यों शक्ति की उपासना करने वाले देश की धरती पर प्रतिदिन लड़कियां छेड़ी जाती हैं। इससे भी विचित्र है ये कि स्वयं शक्ति स्वरूपा होकर भी झेलती क्यों जाती हैं? क्या कारण है आख़िर कि हमेशा ईव टीज़िंग ही होती है ? क्यों कभी एडम टीज़िंग की ख़बर नही आती? भीड़ में, सड़कों पर,बसों में, ट्रेन में, मेट्रो में और बाज़ारों में पुरुष भी तो होते हैं, तो क्यों महिलाएं उन्हें नहीं छेड़ती, सीटी बजातीं, आंख मारतीं, अभद्र इशारे करतीं, घूरतीं?
क्यों युगों युगों से स्त्री को यही समझाया गया है कि पुरुष श्रेष्ठ है ?और क्यों, जिस देश में आदिकाल से देवी की स्तुति की जाती रही है वहां स्त्री आसानी से स्वयं को दीन मान बैठी है? क्यों कभी प्रश्न नहीं किया कि क्यों श्रेष्ठ है पुरुष? विज्ञान ने कितनी भी प्रगति की हो किंतु सत्य तो ये ही है कि प्रकृति ने मां बनने का सौभाग्य स्त्री को ही दिया है और जिस राष्ट्र की आधी आबादी ये मान ही बैठे कि वो कमज़ोर है तो उस देश का विकास हो भी तो कैसे क्योंकि जहां मां दीन हो वहां बेटे कैसे गौरवशाली हो सकते हैं!
आज इक्कीसवी सदी में भी जहां मां समान प्रसव पीड़ा झेल इस असमानता के भाव के साथ जन्म देती है कि बेटा हुआ तो घी का लड्डू और बेटी हुई तो पराया धन… तो ऐसे समाज को बदलने कोई बाहर से तो आएगा नहीं ! ये क्रांति तो घर घर से आरम्भ करनी होगी, जहां आज भी पालन पोषण इस भाव के साथ किया जाता है कि बेटा गर्लफ़्रेंड के साथ घूमे तो बड़ा हो गया और बेटी घूमे तो बड़ी बेशर्म है।
प्रश्न कीजिए अपने आप से कि ऐसा क्यों है? क्यों स्त्रियां अपने को, अपनी बेटियों को, अपनी बहुओं को दोयम दर्जा देती आयीं हैं और दे रही हैं? प्रकृति ने तो स्त्री को पुरुष से कहीं अधिक क्षमतावान बनाया है किंतु स्त्री ने युगों युगों से जो मानदंड अपने स्वयं के लिए बना लिए हैं उनसे उसे ख़ुद ही बाहर आना होगा।
सदियों से पुरुष के भय से जो द्वार स्त्री स्वयं बंद किये बैठी है असुरक्षित, क्योंकि असुरक्षा सिर्फ़ बाहर नहीं घर के भीतर भी तो है। ऐसी असुरक्षा कि स्त्री का अपने ऊपर से विश्वास ही छूट गया है ,सो आज हर स्त्री को एक उपद्रव, एक संघर्ष करना होगा ख़ुद से क्योंकि स्वतंत्रता कभी दी नहीं जाती, लेनी पड़ती है।
फ़्रान्स में क्रांति हुई तो क्रान्तिकारियों ने वो जेल भी तोड़ दी जहां सबसे जघन्य अपराधी क़ैद थे, उस जगह का नाम था ब्रेस्टिले। उन क़ैदियों को आजीवन कारावास की सज़ा मिली हुई थी और उनके हाथ पैरों में सदा- सदा के लिए बेड़ियां डाली गई थीं। जब क्रांति हुई तो वे स्वतंत्र हो गए, लेकिन वे क़ैदी स्वतंत्रता नहीं चाहते थे, कहीं नहीं जाना चाहते थे।क्रान्तिकारियों ने बाहर खदेड़ भी दिया किंतु सांझ होते- होते सब वापस आ गए कि हमें हमारी ज़ंजीरें पहना दी जाएं, वर्षों का अभ्यास है उन बेड़ियों का, उनके बिना हमें नींद नहीं आएगी।
यही बात हम भारत की महिलाओं के साथ भी सही बैठती है। विचारणीय है कि उसे आज़ादी कैसे दी जाए जो स्वयं ही स्वतंत्र ना होना चाहे। मानसिक आज़ादी की तैयारी तो ख़ुद ही को करनी होगी और यही पीड़ा है स्त्री की कि वह स्वयं से ही परिचित नहीं और जो अपनी क्षमता ही न जानती हो वह कैसे प्रश्न करेगी कि आज तक क्यों एक भी सता चौरा न बना? क्या पुरुष इतना दुखी नहीं होता कभी कि मृत पत्नी के साथ जल मरे? क्यों इतिहास में सती चौरा ही बनता रहा ? क्यों सीता के चरित्र पर किसी धोबन ने लांछन न लगाया? धोबी को ही क्यों ये बात सूझी? क्यों द्रौपदी एक- एक कर अपने पांचों पति जुए में न हारी? क्यों बुद्ध ने ही गृहत्याग किया, यशोधरा भी तो कह सकती थी कि मुझे सत्य की खोज में जाना है।
आज क्यों ऐसे समाचार नहीं आते कि किसी युवक पर किसी लड़की ने एसिड फेंका? क्यों कभी इस देश में दामिनी की ही तर्ज़ पर निर्भय कांड ना हुआ कभी? क्यों आज भी गाहे-बगाहे कचरे के ढेर से नवजात कन्या ही उठाई जाती है? नवजात बालक कभी कोई नहीं फेंकता? क्यों हमें आज भी बेटी बचाओ जैसे नारों की ज़रूरत पड़ती है? और ये सब प्रश्न न पूछने की वजह भी एक वही है ‘स्वयं की क्षमताओं से परिचित न होना, क्योंकि शाश्वत सत्य तो यही है कि स्त्री के ही पास है सम्पदा- चेतना को जागृत करने की! आख़िर हर छेड़ने वाला बलात्कारी पुरुष किसी मां का बेटा, किसी बहन का भाई, किसी पत्नी का पति और किसी बेटी का पिता ही तो है, स्वयं विचार करें।
तू खुदी से अपनी है बेख़बर, यही चीज़ है तेरी बेबसी।।
तू हो अपने आप से आशना, तेरे इख़्तियार में क्या नहीं।।
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