अगर आप दिल्ली में रहती हैं या कभी भी दिल्ली आई हैं तो आप ये तो जानती ही होंगी कि मेट्रो ट्रेन दिल्ली की लाइफलाइन बन गई है। दिल्ली वाले हर रोज इसी मेट्रो से अपनी जिंदगी का भी सफर तय करते हैं। तो दिल्ली मेट्रो में रोज सफर करने वाले क्या महसूस करते हैं, अाइए हम आपको बताते हैं।
ऑफिस टाइम में तो मेट्रो में सिर्फ खड़े होने की जगह ही मिल जाए, यही काफी है।
… पर पूरे ट्रैवल में डेढ़ घंटे भी लग सकते हैं -क्योंकि मेट्रो की भीड़ ज़िंदाबाद! आपके पहुंचने के बाद सबसे पहली मेट्रो में आपकी एंट्री हो जाए, ऐसा कहीं नहीं लिखा।
अगर आपको रोज एक मेट्रो बदलनी पड़ती है तो आपको इसके लिए मेडल जरूर मिलना चाहिए। खासतौर पर तब, जब आपको राजीव चौक पर लाइन चेंज करनी पड़ती हो.. ट्रेन सामने खड़ी हो और बाहर कुंभ के मेले जैसी भीड़ हो तो ट्रेन के दरवाजे तक पहुंच पाने की खुशी क्या होती है, यह वही जानते हैं, जो रोज ऐसा करते हैं। पर दरवाजे तक पहुंच कर भी मेट्रो छूट जाए तो दिल को तसल्ली देनी पड़ती है है, कि अगली तो मिल ही जाएगी।
इश्क मूवी का ये डायलॉग रेलवे ट्रेन से ज्यादा मेट्रो ट्रेन पर सूट करता है।
क्योंकि आप धक्का-मुक्की भरे कॉम्पटीशन में अक्सर हार जाती हैं। इसीलिए आप उसके सामने होकर भी उससे बहुत दूर होते हैं।
… और कॉलेज या ऑफिस पहुंचते- पहुंचते किसी हॉरर फिल्म का कैरेक्टर नजर आने लगती हैं...रास्ते में आपके बाल और आपके ड्रेसिंग स्टाइल का कोरमा बन जाता है।
भाई साहब, लोग एकांत में इश्क फरमाते हैं लेकिन मेट्रो में चाहे जितनी भीड़ हो, ये लव बर्ड्स अपना स्पेस बना ही लेते हैं।
ये सिर्फ़ अनाउंसमेंट में ही चलता है.. मेट्रो में किसका हाथ कहां जाता है, पता ही नहीं चलता। और आपका बैग भी आपके साथ एंट्री लेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। गैप के नाम पर अगर 1 इंच भी स्पेस हो तो लोग शिफ्ट करते हुए यही दलील देते हैं कि - कितनी तो जगह है!!
ट्रेन में घुसते वक्त जितना धक्का लगता है, उतने में तो एक गेट से घुस कर सामने वाले गेट से बाहर निकल जाते!! शुक्र है मेट्रो में एक बार में एक ही साइड का गेट खुलता है!
भीड़ चाहे जितनी भी हो, पर लोग थोड़ी देर में अपनी फॉर्म में आ ही जाते हैं। वहां भी उनकी बातें खत्म होने का नाम नहीं लेतीं, जहां सांस लेने की भी जगह न हो। लोग अपने वीकेंड तक का प्लान डिसकस करने लगते हैं।
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