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क्यों स्त्रियां हर कदम पर पुरुष से बराबरी की होड़ में लगी हैं?

क्यों स्त्रियां हर कदम पर पुरुष से बराबरी की होड़ में लगी हैं?

 

फूलों पर बरसती हूं, कभी सूरत-ए-शबनम

बदली हुई रुत में कभी सावन की झड़ी हूं…

औरत हूं मगर सूरत-ए-कोहसार खड़ी हूं

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इक सच के तहफ़्फ़ुज़ के लिए सब से लड़ी हूं

प्रतिवर्ष 8 मार्च को मेरे और आपके देश में हर छोटे बड़े एनजीओ, सरकारी ग़ैरसरकारी मंच पर धूमधाम और तामझाम से इंटरनेशनल विमेन डे मनाते हैं जहां होड़ लगती है बड़े से बड़े नेता, अभिनेता को मुख्य अतिथि बनाने की और समाज की प्रतिष्ठित महिलाओं को अवार्ड देने की, किंतु कड़वा सत्य तो यही है कि इस दिन हर 20 मिनट पर होते बलात्कार भूल जाते हैं, भूल जाते हैं एसिड अटेक, ईव टीजिंग, मासूम बच्चियों से दुष्कर्म और महिमा मंडित करते हैं महिलाओं की प्रगतिशील सोच को! किंतु आश्चर्य कि इस 21वीं सदी के प्रगतिशील समय में भी स्वयं प्रधानमंत्री जी को कहना पड़ता है कि- बेटियां बचाओ बेटियां पढ़ाओ। इससे भी बड़ा आश्चर्यचकित करने वाला कड़वा सच ये है अपने समाज का कि जो बेटियां बच जाती हैं तो वे क़दम क़दम पर मर- मर के जीती हैं और जो बेटियां पढ़ जाती हैं वे अपनी सक्षमता को सिद्ध करने घरों से बाहर निकल नौकरी करती है, बिजनेस विमेन बनती हैं, और दोगुना काम करती हैं। घर- बाहर दोनों को संभालती हैं। और हाथ आता है रोज़ का टाइमटेबल, भागती दौड़ती ज़िंदगी और घड़ी की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी से होड़।

पर्दा या गुलामी का चिन्ह 

एक आश्चर्य और भी है कि इस 21वीं सदी के प्रगतिशील समय में कभी किसी पुरुष ने स्वयं आगे बढ़ कर नहीं कहा की अगर स्त्री घर बाहर दोनों जगह काम संभाल रही है तो मैं भी दोनों जगह बराबर ज़िम्मेदारी से काम में हाथ बटाऊंगा। ना ही बच्चों की ज़िम्मेदारी ली ना चूल्हे चक्की की, ना हाट बाज़ार की ! क्यों? आख़िर कारण क्या है? क्यों पुरुष को स्त्रियों की पोशाक पहनने में रस नहीं, पुरुष स्कर्ट फ़्रॉक पहनने को क्यों उत्सुक नहीं होता? क्यों स्त्रियां ही पैंटशर्ट जींस कोट को अपनाए बैठी हैं? क्यों स्त्रियां घूंघट को पर्दे को गुलामी का चिन्ह मान बैठी हैं जबकि हक़ीक़त तो ये है कि पर्दे के घूंघट के फ़ायदे ही अधिक हैं, नुक़सान कम, मेकअप किया ना किया बाल सेट किए ना किए क्रीम लिपस्टिक लगाई न लगाई क्या फ़र्क़ पड़ता है? और सच ये भी तो है कि सज संवर के बाहर निकलें तो अभद्र इशारों और मनचलों को ख़ुद ही दें निमंत्रण कि आओ अब हमें छेड़ो! क्यों बुर्क़े को ग़ुलामी का प्रतीक मान बैठी हैं स्त्रियां, जबकि बुर्क़ा तो सम्भवतया पूरी आज़ादी का प्रतीक है कि स्त्री चाहे तो भीतर अपने बेहद ढीले ढाले, आरामदायक कपड़े पहने ना पहने उसकी इच्छा और दुनिया की बला से।

बराबरी की होड़

क्यों स्त्रियां हर क़दम पर पुरुष से बराबरी की होड़ में लगी हैं? क्या मनवाना चाहती हैं? किससे और क्यों? मेरी समझ तो कहती है कि शायद पहले की निपट घरेलू स्त्रियां अधिक सुदृढ़, अधिक कुशल, अधिक स्मार्ट थीं जो डंके की चोट पर कहती थीं कि खाना तभी बनेगा जी जब बाज़ार से नमक तेल सब्ज़ी ला कर दोगे! आज बेचारी दफ़्तर से थकी हारी सांझ ढले लौटती हैं तो एक हाथ में होता है सब्ज़ी का झोला और दूसरे में डबलरोटी का पैकेट और दिमाग़ में रात के खाने का मेन्यू और सुबह के नाश्ते का इंतज़ाम!

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पुरुष का एक और षड्यंत्र

क्या ये वास्तव में पुरुष का एक और षड्यंत्र नहीं कि वर्ष में एक दिन “ इंटरनेशनल विमेन डे “मनाया जाए ताकि फिर वर्ष भर आसानी से बुदधू बनाया जा सके औरत को? क्या आज की स्त्रियां पहले से और अधिक मूर्ख न हो चली हैं?  कॉरपोरेट ऑफ़िस में, बैंक में, आर्मी में, सेना में, फ़्रंट पर, एवरेस्ट की ऊंचाई पर, जहाज़ उड़ा रही है, इस गणतंत्र दिवस पर मोटरसाइकल पर ऐसे विलक्षण संतुलन के हैरतंगेज़ करतब भी दिखाए, ख़ूब वाह वाह भी हुई किंतु क्या किसी ने कभी सोचा कि इस बराबरी की अंधी दौड़ में कितने पुरुष घर में रोटी बेलते दिखे? आटा गूंथते, परांठे बनाते, बच्चों की सुसू- पॉटी साफ़ करते, दूध की बोतल तैयार करते या नेप्पी सुखाते दिखे? कितने पुरुष अपने सास ससुर के लिए रात का खाना, सुबह का नाश्ता बनाते, खिलाते, दवा का ध्यान रखते हैं ? कितने पुरुषों ने बच्चों और अपनी दफ़्तर जानेवाली पत्नी का टिफ़िन पैक किया ? बच्चों की स्कूल यूनिफ़ॉर्म तैयार की? स्वयं विचार कीजिए!

चाहते हैं एक सुपर वुमन

कहावत है कि स्त्रियां ख़ुद में ही एक बहुत बड़ी ताक़त हैं, इतनी बड़ी कि वह मर्द पैदा करती हैं! किन्तु क्या कड़वा सच यह नहीं कि ऐसे पुरुष भी वही बनाती है जो महिलाओं को आज भी पैरों की जूती ही समझते हैं, जो बेशक दिल ही दिल में ही नहीं परोक्ष में भी कहते हैं, चाहते हैं कि स्त्रियां कमा के लाएं, बच्चे पाले, खाना पकाए, निभाए हर ज़िम्मेदारी बख़ूबी और सजी संवरी भी रहे। चाहते हैं एक सुपर वुमन लेकिन गीला तौलिया हर दिन बिस्तर पर डालना नहीं छोड़ सकते !

औरत के क़दमों की बरकत

एक कहावत और भी है जिसे जानना और मानना हर पुरुष को चाहिए ही लेकिन बचपन से बच्चे के दिमाग़ में बिठाएगी और सिखाएगी तो सिर्फ़ मां ही ये बात कि “बरकत है ये औरत के क़दमों की, दीवार ओ दर को घर बना देती है वो !” भविष्य की नींव आज रखनी ही होगी वरना आगे आने वाले वर्षों में यूं ही ख़ूब मनाइए “ इंटरनेशनल विमेन डे ”! दीजिए अपनी सहूलियत और सुविधा के अनुसार “वुमेन अचीवर अवार्ड” हर एनजीओ के मंच पर ‘पर सत्य से आंखें कब तक ना मिलाएंगे? क्योंकि लाख लीपपोती कर लीजिए सच यही रहेगा कि –

अल्फ़ाज़ न आवाज़ न हमराज़ न दम-साज़

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