वैलेंटाइन डे “ यानि प्रेम का दिन, सारा विश्व मानो प्रेम के रंग में रंग जाता है ! भारत में तो मानो सम्पूर्ण प्रकृति भी रस रंग से सराबोर हो उठती है। सब ओर महकते फूलों की छटा, ख़ुशगवार मौसम और दुकानें सब विविध उपहारों से लदी, सजी, लाल गुलाब, लाल ग्रीटिंग कार्ड, लाल ग़ुब्बारे ओर ढेरों ऑनलाइन डिस्काउंट ऑफ़र, कपड़ों जूतों पर्स मोबाइल परफ्यूम कुशन कालीन यहां तक कि फ़र्नीचर पर भी! और हर एक रेस्ट्रॉ भी डिस्काउंट देने में एक से बढ़ कर एक होड़ लगाते से लगते हैं; कि हर ऑर्डर पर जाने क्या- क्या न फ़्री दे डालें ! बर्गर हो या पिज़्ज़ा या फिर केक पेस्ट्री सब कुछ दिल के आकार में, काटिये और गप्प से खा जाइए !
बाज़ारों में रौनक़ कुछ दिन पहले से चाकलेट डे, रोज़डे, टेडीबीयर डे की गहमा गहमी शुरू हो जाती है तो ही यक़ीन आता है सबको कि हां ! हमें भी कोई चाहता है ! किन्तु प्रश्न जो मूल में है वो ये कि क्या वास्तव में प्रेम इतना छिछला, इतना सतही हो चला है कि ऐसे बचकाने स्वरूप को, ऐसे बेहूदे प्रेम प्रदर्शन को, ऐसे व्यवसायीकरण को इस प्रकार फलीभूत होना पड़ता है ?
स्वयं विचार कीजिए! प्रेम है क्या आख़िर ? हमने तुमको देखा तुमने हमको देखा या फिर इशारों इशारों में आंखें बात करने लगीं या सौ साल पहले मुझे तुमसे प्यार था, आज भी है और कल भी रहेगा या फिर मेरी ज़िंदगी तुम्हीं हो जैसे गीत या सिर्फ़ एहसास है ये रूह से महसूस करो प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम ना दो जैसी कविताएं या इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब जैसी शायरी ? प्रश्न इतने महत्व का भी नहीं लेकिन है भी क्योंकि युगों युगों से बहता रहा है ये झरने सा, निर्बाध, प्रकृति के कण कण में उठता है प्रेम का संगीत। हर सुबह जो पंछी गाते हैं, जो फूल खिलते हैं, प्रेम का सन्देश ही तो है! वे तो नहीं कहते कि हम सिर्फ़ एक निश्चित दिन ही खिलेंगे, चहकेंगे, महकेंगे!
गोस्वामी तुलसीदास रचित रामचरित मानस में एक चौपाई है –
हरि व्यापक सर्वत्र समाना, प्रेम ते प्रकट होई मैं जाना।
अग जगमग सब रहित वीरागी, प्रेम ते प्रकट होई जिमी आगी।।
अर्थात ईश्वर सब के हृदय में प्रेम के रूप में बसा रहता है, जैसे चकमक पत्थर में आग रहती है! सो इसमें कोई तर्क कोई विवाद नहीं कि हम सभी में प्रेम विद्यमान है ही, वस्तुतः हम प्रेम का साकार रूप ही तो हैं! माता पिता बहन भाई पति पत्नी दादा दादी नाना नानी कितने ही प्रेम भरे रिश्तों में बन्ध जाते हैं हम जन्मते ही!
फिर बड़े होते होते कितने ही मित्र, हितैषी, प्रेम कितने विविध रूप धरता है, चंद्रमा की कलाओं सा बढ़ता है, घटता है! और एक बात हम उन वैभवशाली पूर्वजों के वंशज हैं जिन्होंने कभी कामसूत्र की रचना की और खजुराहो के मन्दिरों में शिल्पकला का जादू बिखेरा और सत्य की नागफनी यह है कि उसी पुण्यधरा पर आज प्रेम का जो बचकाना स्वरूप देखने को मिलता है उसे देख हंसी भी आती है, क्रोध भी और दया भी! हां समय बदला है, हर युग में बदलता है !
वर्षों पहले जब पहला प्रेम विवाह हुआ होगा तो अपने समय में वही क्रांति रहा होगा, आज भी भारतीय समाज का कटु सत्य तो यही है कि हर सप्ताह एक न एक ऑनर किलिंग की ख़बर आ ही जाती है, कभी धर्म ख़तरे में पड़ जाता है तो कभी जाति! प्रेम वही है किंतु सोहनी महिवाल रहे हों, लैला मजनूं या फिर भारती यादव & नीतीश कटारा या अन्य कोई प्रेमी युगल जिनका नाम इतिहास में दर्ज नहीं हुआ।ये अलग- अलग समय में जन्मे लोग जिनके नाम भले अलग रहे हों, नियति एक रही थी ! इन्होंने एक दूसरे को उपहार स्वरूप स्वयं को दे डाला,अपना जीवन उत्सर्ग कर गए प्रेम की राह पर!
स्वयं विचार कीजिए कि आज जब वैलेंटाइन डे पर लाखों करोड़ों रुपए का व्यापार होगा उपहारों की ख़रीद फ़रोख़्त में तो लाभ किसको होगा आख़िर? प्रेमी, युवा दिलों को? क्या सुर्ख़ गुलाब प्रेम बढ़ा देंगे या चटकीली चमकती पन्नियों में लिपटा रंगबिरंगे रिबन से बंधा गिफ़्ट उस प्रेम को और कस के बांधेगा?
और कड़वा सच तो ये भी है कि अंततः तो मुख्य उद्देश्य सोशल मीडिया पर अपनी फ़ोटो अपलोड करना, उपहार का,अपने वैलेंटायन डे का, बढ़ाचढ़ा कर गुणगान करना नहीं है क्या? बड़ा प्रश्न ये है कि क्या प्रेम की सार्थकता ऐसे ओछे और थोथे प्रदर्शन में निहित है? यदि हां तो अगला वैलेंटाइन डे आते- आते तक इस वर्ष का साथ जीने मरने की क़समें खाने वाला प्रेमी वैलेंटाइन बदलता क्यों है? क्यों ब्रेकअप सांग और ब्रेक अप फ़ूड, ब्रेकअप पार्टी का चलन बढ़ा है ? और यदि नहीं तो फिर वर्ष में केवल एक दिन ही वैलेंटाइन डे क्यों हो भला? प्रेम तो शाश्वत है, नित्य है, निरंतर है तो उसे वर्ष भर की प्रतीक्षा कर एक दिन महंगे उपहारों की क्या दरकार? स्वयं विचार कीजिए !
प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम ना चिन्है कोई
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहाबै सोई।
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