ये हिंदी कहानी है आपके रोजमर्रा के व्यवहार की, आपकी मानसिकता की और जैसे को तैसा जैसे मुहावरे की…
अरे बाई! अब 5-6 दिन कोई छुट्टी-वुट्टी नहीं करना, घर में मेहमान आए हुए हैं।” खाने का भी दुगुना काम फैल गया और हां, कपड़े वगैरा थोड़े ज्यादा ही होंगे क्योंकि मेहमानों के भी धुला करेंगे, पर चल कोई बात नहीं मैं तुझे ज्यादा पैसे दे दूंगी। तू तो मेरी परेशानी समझ रही है ना, काम कितना बढ़ गया है! सो साथ देना, इधर-उधर ज्यादा आना-जाना मत करना।
अपनी बहू द्वारा बार-बार कहा जा रहा “मेहमान” शब्द नीरा के मन पर हथौड़े की तरह बज रहा था। अब उसे अहसास हो रहा था कि बड़ी से बड़ी चोट व्यक्ति सह सकता है परन्तु अपनों द्वारा जब शब्दों की पीड़ा मिलती है तो उसे सहन करना नामुमकिन हो जाता है। अन्तर्मन तक इस पीड़ा से कराह उठता है। नीरा को वर्षो पुराना वह समय रह-रहकर याद आ रहा था जब वो ऐसे ही शब्दों के तीर अपने सास-ससुर पर चलाती थी। उनके स्नेह-लगाव को नकार उनकी बेबसी-पीड़ा देख खुश हो अपनी जीत महसूस करती थी।
आखिरकार नीरा ने अपने मन को झंझोड़ा और स्वयं को आश्वासन देते हुए समझाना चाहा, भला! मेरी बहू हमारे बारे में ऐसा क्यों सोचेगी, क्यों ऐसा कहेगी? इसलिए उसने बड़े प्यार और अपनत्व से पूछा, “बहू कोई और आने वाला है क्या? जो तुम बाई से मेहमान- मेहमान कर रहीं थीं।”
बहू ने भी उतने ही प्यार से जवाब दिया “नहीं तो मम्मीजी कोई नहीं आने वाला। आप आए हुए हो ना इसलिए “मेहमान” शब्द आप और पापाजी के लिए ही कह रही थी।”
असल में आप ही कहा करती थीं ना कि जब निखिल के दादाजी- दादीजी आते थे तो बेटे- बहू के घर को अपना समझ खूब ऐशो-आराम करते थे। पर मेरा तो बहुत काम बढ़ जाता था। घर में सौ झंझट दिखाई देते थे। औरों को तो फिर भी झेल लो, किसी तरह सह लो, पर इन अपने मेहमानों से तो भगवान ही बचाए।
बस! अब जो आपसे सुना-सीखा वही अमल करने की कोशिश कर रही हूं। आशीर्वाद दें! आपकी बहू होने के नाते जैसा जो कुछ भी आपने इस परिवार के लिए किया, आगे मैं भी वैसा ही कर सकूं, कोई कमी ना रहने पाए।
अब नीरा के पास इसका कोई प्रत्युत्तर नहीं था। आज उसका अपना प्रतिबिंब उसके सामने था, वो मौन थी, असहाय- बेजुबान और बेबस थी।
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